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उत्तराखंड: इगास आज, लक्ष्मी पूजन के साथ खेलेंगे भैलो, जानिए क्या है इस पर्व की मान्यता

पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास आज मनाई जाएगी। इस दिन लक्ष्मी पूजन के साथ ही गायों की पूजा जाती है। इस पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय पारंपरिक भैलो खेलते हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 25 Nov 2020 10:05 AM (IST)Updated: Wed, 25 Nov 2020 10:05 AM (IST)
इगास आज, लक्ष्मी पूजन के साथ खेलेंगे भैलो।

देहरादून, जेएनएन। पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास आज मनाई जाएगी। इस दिन लक्ष्मी पूजन के साथ ही गायों की पूजा जाती है। इस पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय पारंपरिक भैलो खेलते हैं। पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू (पौष्टिक आहार) तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। इसके बाद उन्हें ये आहार खिलाया जाता है। जब गाय-बैल पींडू खा लेते हैं तब उनको चराने वाले या गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है। इस दिन घरों में पूड़ी, स्वाले, उड़द की पकोड़ी बनाई जाती है। रात को पूजन के बाद सभी भैलो खेलते हैं। इसके साथ ही एक महीने तक गावों में चलने वाला झुमैलो, थड़िया गीत का भी इस दिन समापन होता है।

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यह है मान्यता

डॉ. आचार्य सुशांत राज के मुताबिक पहाड़ में एकादशी को इगास कहते हैं। इसलिए इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है। जो विशेषतौर पर गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है। एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यहां पर 11 दिन बाद यह पर्व मनाया जाता है। दूसरी मान्यता के अनुसार दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दीपावली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी।

भैलो खेलकर मनाया इगास, गीतों पर झूमीं महिलाएं 

उत्तराखंड देवभूमि गढ़वाल महासभा कैंट की ओर से लोकपर्व इगास महोत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। इस दौरान महिलाओं ने गढ़वाली गीतों पर नृत्य की प्रस्तुति दी। वहीं, भैलो खेलकर संस्कृति का परिचय दिया। इस दौरान सदस्यों ने पहाड़ी व्यंजनों का भी आनंद लिया।

मंगलवार को गढ़ी कैंट स्थित महासभा के कार्यालय में आयोजित कार्यक्रम में महासभा के संरक्षक मंडल, महिला मंडल और कार्यकारिणी सदस्यों ने शिरकत की। इसके बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत गढ़वाली गीत फ्योंलड़ियां त्वै देखिकी ऑन्दी यू मन मां..,बीस साल गुजरी लेकिन कुछ नी ह्वै, लगलू मंडाण.. आदि गीतों पर जमकर नृत्य किया। इसके बाद उड़द की पकोड़ी, दाल के भरे स्वाले और गुलगुले का आनंद लिया। महासभा के चेयरमैन भगवान सिंह पंवार ने बताया कि हर साल यह दिन म¨हद्रा ग्राउंड में भव्य रूप से मनाया जाता था, लेकिन इस बार कोरोनाकाल को देखते हुए सादगी से कार्यक्रम मनाया। इस मौके पर संरक्षक मंडल में रिटायर्ड कर्नल जीएस रावत, जीएस बागड़ी पूर्व प्रबंध निदेशक वन निगम, पूर्व अपर शिक्षा निदेशक एनएस राणा, किशोरी लाल अपर निदेशक कृषि, माखनलाल बुड़ाकोटी, जबर सिंह पावेल, आशीष डोभाल मौजूद रहे।

उत्साह के साथ खेलते हैं भैलो

इगास बग्वाल के दिन भैलो खेलने का विशेष रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।

देवउठनी एकादशी के साथ मांगलिक कार्य शुरू

इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है। इसे ग्यारस का त्योहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं। मान्यता के अनुसार क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे। इस दिन से सभी मांगलिक कार्य शुरू होते हैं।

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