Move to Jagran APP

कुंभ मेलों में सबसे निराला हरिद्वार कुंभ, गांधी जी हुए थे भावविभोर; इन विदेशी यात्रियों ने भी किया महिमा का बखान

Haridwar Kumbh Mela 2021 वैसे तो कुंभ मेले प्रयाग उज्जैन व नासिक में भी आयोजित होते हैं लेकिन साढ़े तीन माह चलने वाले हरिद्वार कुंभ की बात ही निराली है। यहां कुंभ के विराट रूप को देखकर गांधीजी तक भावविभोर हो गए थे।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Sat, 27 Mar 2021 09:45 AM (IST)Updated: Sat, 27 Mar 2021 09:45 AM (IST)
कुंभ मेलों में सबसे निराला हरिद्वार कुंभ, गांधी जी हुए थे भावविभोर। जागरण

दिनेश कुकरेती, देहरादून। Haridwar Kumbh Mela 2021 वैसे तो कुंभ मेले प्रयाग, उज्जैन व नासिक में भी आयोजित होते हैं, लेकिन साढ़े तीन माह चलने वाले हरिद्वार कुंभ की बात ही निराली है। यहां कुंभ के विराट रूप को देखकर गांधीजी तक भावविभोर हो गए थे। वे 1915 के कुंभ के दौरान पांच अप्रैल को बा (कस्तूरबा) के साथ हरिद्वार आए थे। यही नहीं, भारत आने वाले विदेशी यात्रियों ह्वेन त्सांग (634 ईस्वी), शफरुरुद्दीन (1398 ईस्वी), थॉमस कायरट (1608 ईस्वी), थॉमस डेनियल व विलियम डेनियल (1789 ईस्वी), थॉमस हार्डविक व डॉ. हंटर (1796 ईस्वी), विन्सेंट रेपर (1808 ईस्वी), कैप्टन थॉमस स्किनर (1830 ईस्वी) आदि ने भी अपने संस्मरणों में हरिद्वार कुंभ की महिमा का बखान किया है।

loksabha election banner

इसमें कोई संदेह नहीं कि कुंभ अनेकता में एकता के दर्शन कराता है। देश के विभिन्न प्रांतों से जब विविध भाषा-भाषी आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कुंभनगर में इकट्ठा होते हैं तो राष्ट्रीय एकता के तार जुड़ते चले जाते हैं। भले ही नासिक, उज्जैन, प्रयाग व हरिद्वार भारत की भौगोलिक एकता का परिचय न दे पाते हों, लेकिन इन स्थानों पर कुंभ मेलों के दौरान एकत्र होने वाले श्रद्धालु अपने साथ अपनी-अपनी भूमि, तीर्थ, सामाजिक व्यवस्था व सांस्कृतिक चेतना के माध्यम से विराट समानता के दर्शन अवश्य करा देते हैं।

 

आदि शंकराचार्य और रामानंदाचार्य ने संगठन और सामाजिक रूपांतरण के क्षेत्र में मध्यकाल में जो विराट कार्यक्रम बनाया था, उनके अनुयायियों ने कुंभपर्व पर अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ उसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया। शाही स्नान की शोभायात्राओं में उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक वैभव का प्रदर्शन कर आक्रांता शासकों से भयभीत सनातनी समाज को नैतिक एवं शारीरिक सुरक्षा प्रदान की। 1796 ईस्वी में पटियाला के राजा साहिब सिंह ने दस हजार घुड़सवारों के साथ शस्त्रबल पर सिख साधुओं को कुंभ स्नान का अधिकार दिलाया। दूसरी ओर पेशवाओं ने नागा संन्यासियों को उनके शस्त्र एवं शास्त्र पर समान अधिकार के कारण भरपूर सम्मान दिया।

देखा जाए तो दुनिया के किसी भी मेले में इतने लोग इकट्ठा नहीं होते, जितने कि कुंभ मेलों में। मध्यकाल में संचार साधनों की उपलब्धता न होने के बावजूद साधु-संतों की प्रेरणा से अपार जनसमूह एकत्रित होता रहा और यहीं से संपूर्ण राष्ट्र को उपयोगी संदेश दिए जाते रहे। गांधीजी ने अपने एक लेख में लिखते हैं, 'मेरे लिए वह घड़ी धन्य थी, लेकिन मैं तीर्थयात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था। पवित्रता आदि के लिए तीर्थ क्षेत्र में जाने का मोह मुझे कभी नहीं रहा। फिर भी मेरा ख्याल था कि 17 लाख यात्रियों में सभी पाखंडी नहीं हो सकते। यह कहा जाता था कि मेले में 17 लाख लोग इकट्ठे हुए थे। मुझे इस विषय में कोई संदेह नहीं था कि इनमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए और स्वयं को शुद्ध करने के लिए आए थे।

इसी तरह अनंतपुर के राजा रामदत्त लिखते हैं, 'भारतीय संस्कृति के मूल में जो परम सत्य निहित है, कुंभ मेला के मूल में भी उसी सत्य के दर्शन होते हैं। इसी कारण कुंभ इतने स्थिर और निश्चिंतता के भाव से चला आ रहा है। यह सच है कि कुंभ के लिए भीड़ जुटाने का कोई उद्यम नहीं होता, विज्ञापन की जरूरत नहीं पड़ती, निमंत्रण नहीं दिया जाता, फिर भी धनी-निर्धन, छोटे-बड़े विरक्त और गृहस्थ लाखों की संख्या में 'हर-हर गंगे' का जयघोष करते हुए पर्व पर इकट्ठे हो जाते हैं।

यह भी पढ़ें- Haridwar Kumbh Mela 2021: कुंभ का संयोग- हजार साल में 11वीं बार 14 अप्रैल को मेष संक्रांति, पढ़िए पूरी खबर

Uttarakhand Flood Disaster: चमोली हादसे से संबंधित सभी सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.