यहां एक माह बाद मनाई जाती है पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली, पूरी तरह से होती है इको फ्रेंडली
जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में तीज-त्योहार को मनाने का अंदाज और परंपराएं काफी निराली हैं। देशभर में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए विख्यात जौनसार-बावर में देश की दीवाली के एक माह बाद पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है।
विकासनगर, जेएनएन। जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में तीज-त्योहार मनाने का अंदाज और परंपराएं निराली हैं। देशभर में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए विख्यात जौनसार-बावर में देश की दीवाली के एक माह बाद पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली मनाई जातीहै। हालांकि, समय बदलने के साथ ही बावर के कुछ गांवों में नई दीवाली मनाने का चलन भी चल पड़ा है, लेकिन इस दौरान न पटाखे का शोरगुल और न ही आतिशबाजी देखने को मिलती है। इससे वातावरण भी प्रदूषित नहीं होता। यहां पर सिर्फ इको फ्रेंडली दीवाली मनाई जाती है।
देशवासियों ने प्रकाश पर्व दीपावली का त्योहार 14 नवंबर को धूमधाम से मनाया, लेकिन जौनसार के करीब दो सौ गांवों में इसके ठीक एक माह बाद परपंरागत तरीके से पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाई जाएगी। हालांकि, क्षेत्र के करीब डेढ़ सौ से अधिक गांवों में देशवासियों के साथ नई दीवाली मनाने की शुरुआत भी कुछ सालों पहले हो चुकी है। पर अंदाज वही पुरानी इको फ्रैंडली दीवाली का ही है। यहां की दीवाली पूरे देश को प्रदूषणरहित दीवाली मनाने का संदेश भी देती है। जौनसार-बावर परगने के सीमांत तहसील त्यूणी, चकराता और कालसी तीनों तहसील से जुड़े करीब चार सौ गांवों और इतने ही तोक-मजरों को 39 खतों में बांटा गया है।
जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में हर तीज-त्योहार मनाने का अंदाज हटकर है। भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की खुशी में देशवासी हर साल हर्षोल्लास से प्रकाश पर्व दीपावली का जश्न धूमधाम से मनाते हैं, लेकिन देहरादून जनपद के सुदूरवर्ती जौनसार-बावर और पछवादून के बिन्हार क्षेत्र में ठीक इसके उलट एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दीवाली परपंरागत तरीके से मनाई जाती है।
बावर क्षेत्र के सिद्धपीठ श्री महासू देवता मंदिर हनोल, बाशिक महासू व देवलाड़ी माता मंदिर मैंद्रथ, देवघार के अणू, फेडिज, शेडकुडिया महाराज मंदिर रायगी समेत पांच गांवों में पहले से नई दीवाली मनाई जाती है। इसके अलावा जौनसार-बावर के अन्य गांवों में देशवासियों के दीपावली मनाने के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाने की परपंरा हमेशा से रही है।
समय के साथ बदलाव, मनाई जाने लगी नई दीवाली
समय के साथ आए बदलाव के चलते क्षेत्र के कई गांवों में पिछले कुछ वर्षों से पौराणिक परपंरा से हटकर नई दीवाली का जश्न मनाने लगे हैं। कंडमाण और जौनसार के करीब अस्सी गांवों में नई दीवाली का जश्न पिछले कुछ साल से मनाया जाने लगा है। ग्रामीण गाजे-बाजे के साथ मंदिर परिसर और पंचायती आंगन में पहली होलियाच निकालते हैं, जिससे क्षेत्र में पांच दिवसीय नई दीवाली का जश्न शुरू हो जाता है। सिद्धपीठ श्री महासू देवता मंदिर हनोल, मैंद्रथ, पुरटाड़, निनुस, बागी, बृनाड़-बास्तील, कूणा, चौसाल, रायगी, अणू, मुंधोल, रडू, कुल्हा, डेरसा, प्यूनल, मेघाटू, शेडिया, छुमरा, भगवत, फेडिज, चिल्हाड़, केराड़, बाणाधार, शिलवाड़ा, किस्तुड़, सारनी, निमगा, भंद्रोली, डूंगरी, पेनुवा समेत क्षेत्र के करीब चालीस गांवों में कुल देव महासू महाराज की आराधना के साथ पहली होलियाच निकाली जाती है। रात्रि भोज के बाद चीड़ लकड़ी की मशालें जलाकर ढ़ोल-दमोऊ के साथ नई दीवाली का जश्न परपंरागत तरीके से मना जाता है।
बिन्हार, शिलगांव और जौनसार में मनेगी बूढ़ी दीवाली
पछवादून के बिन्हार क्षेत्र के पष्टा, मटोगी, मद्रसू, भलेर, सुमेथ, कटापत्थर और पपडियान, शिलगांव खत के हरटाड़, छजाड़, कथियान, डांगूठा, ऐठान, पटियूड़, डिरनाड़, भटाड़, भूटनाड़, अंगेडी, देवघार खत के भाटगढ़ी, बानुपर, झिटाड़ और जौनसार के चकराता, क्वांसी, लाखामंडल, कांडोई-बोंदूर, कालसी व साहिया क्षेत्र से जुड़े करीब दो सौ गांवों में देशवासियों के दीवाली मनाने के ठीक एक माह बाद परपंरागत अंदाज में पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा बदस्तूर कायम है। बिन्हार निवासी जेएस तोमर, जौनसार के विख्यात रंगकर्मी नंदलाल भारती, लोक गायक बाबूराम शर्मा व कालसी ब्लॉक के पूर्व कनिष्ठ उपप्रमुख खजान नेगी ने कहा, जौनसार व बिन्हार क्षेत्र में सदियों से पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाने की परपंरा है। यहां लोग प्रदूषण रहित इको फ्रेंडली दीवाली मनाते हैं।
पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा
दीवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अलग तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुर्जुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाते हैं। जबकि अधिकांश लोगों का मत है कि जौनसार-बावर व बिन्हार कृषि प्रधान क्षेत्र होने की वजह से यहां लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं। जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली का जश्न परपंरागत तरीके से मनाते हैं। यहां पहले पहले दिन छोटी दीवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दीवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।