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उत्‍तराखंड में आर्थिक उपयोग से होगा सुल्लू पर प्रभावी नियंत्रण, जाने इसके बारे में

उत्तराखंड में आर्थिक उपयोग से सुल्लू पर प्रभावी नियंत्रण होगा। यह उत्‍तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाई जाने वाली कैक्टस की श्रेणी की प्रजाति है। यह कांटेदार प्रजाति तेजी से फैल रही है। हेस्को ने इसके कई उपयोग तलाशे हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 23 Oct 2021 05:36 PM (IST)Updated: Sat, 23 Oct 2021 05:36 PM (IST)
उत्‍तराखंड में आर्थिक उपयोग से होगा सुल्लू पर प्रभावी नियंत्रण, जाने इसके बारे में
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में अनुपयोगी वनस्पतियों के प्रसार ने चिंता भी बढ़ा दी है।

केदार दत्त, देहरादून। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में अनुपयोगी वनस्पतियों के प्रसार ने चिंता भी बढ़ा दी है। लैंटाना कमारा यानी कुर्री ने पहले ही पर्यावरण के लिए आफत खड़ी की हुई तो जंगलों में तमाम घुसपैठिया प्रजातियों ने भी दस्तक दी है। इस सबके बीच राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाई जाने वाली कैक्टस की श्रेणी की प्रजाति यूफोर्बिया रायलीना जिसे स्थानीय बोली में सुल्लू कहा जाता है, भी है। आमजन के लिए सीधा कोई उपयोग न होने के कारण यह कांटेदार प्रजाति भी तेजी से फैल रही है।

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पर्वतीय क्षेत्र में जगह-जगह नजर आते हैं सुल्लू के पौधे। यह वही सुल्लू है, जिस पर हल्की सी खरोंच लगने पर सफेद रंग का गाढ़ा पदार्थ निकलता है, जिसे लेटेक्स कहते हैं। तने पर कांटे होने के कारण सुल्लू का उपयोग अभी तक फसल सुरक्षा के लिए खेतों की बाड़ के रूप में किया जाता रहा है। इसका अन्य काई उपयोग न होने के कारण 15 फीट तक की ऊंचाई प्राप्त करने वाली यह प्रजाति निरंतर फैल रही है। इसकी कांटेदार शाखाएं एकांतरित क्रम में होती हैं, जिनके शीर्ष पर छोटी-पत्तियां निकलती हैं।

निरंतर फैलने के कारण सुल्लू एक दिक्कत के तौर पर देखा जाने लगा है। अब तो पर्वतीय इलाकों में इसके बड़े-बड़े पैच दिखने लगे हैं। काष्ठीय न होने के कारण इसके तने को जलौनी लकड़ी के रूप में भी उपयोग में नहीं लाया जा सकता। इस सबको देखते हुए हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (हेस्को) ने सुल्लू के कई उपयोग तलाशे हैं।

हेस्को की वैज्ञानिक डा किरन बताती हैं कि सुल्लू को जलाने अथवा उखाड़ने पर खत्म नहीं किया जा सकता। वजह ये कि इसमें मानव श्रम अधिक लगेगा। ऐसे में सुल्लू का आर्थिक उपयोग कर ही इसे नियंत्रित किया जा सकता है और इससे आय भी प्राप्त की जा सकती है।

वह बताती हैं कि सुल्लू का उपयोग मशरूम उत्पादन में किया जा सकता है। इसके तनों को काटकर इन पर मशरूम उगाई जा सकती है। इसके लिए सुल्लू के तनों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर इन्हें दो दिन तक पानी में डुबोकर रखा जाता है। फिर इन्हें खौलते पानी में डाला जाता है, ताकि ये कीटाणुरहित हो जाएं। इसके बाद पालीथिन बैग में डालकर प्रत्येक बैग में 0.5 सेमी व्यास के छेद किए जाते हैं। करीब दो सप्ताह में ये बैग सफेद होते दिखाई पड़ने पर इन्हें फाड़ दिया जाता है। इस दौरान तापमान व आर्द्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। 20-25 दिन बाद इन तनों पर ढींगरी मशरूम उगना शुरू हो जाती है। डा किरन के अनुसार सुल्लू के पौधे के सूखने पर इसे ईंधन के रूप में तो उपयोग में नहीं लाया जा सकता, लेकिन कोयला बनाने में इसका उपयोग हो सकता है। इसके अलावा सुल्लू के अन्य कई उपयोग भी तलाशे गए हैं।


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