जंगल की बात : देर से ही सही, मगर वन विभाग की तंद्रा तो टूटी
उत्तराखंड में अब भावी पीढ़ी को वन एवं वन्यजीव संरक्षण से जोड़ा जाए। उत्तराखंड के दोनों टाइगर रिजर्व छह राष्ट्रीय उद्यान सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व में 12 साल तक के बच्चों के लिए प्रवेश निश्शुल्क कर दिया है।
केदार दत्त, देहरादून। 'देर आए दुरुस्त आए', जंगल और जंगली जानवरों की रखवाली का जिम्मा संभालने वाले वन विभाग पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती है। लंबे समय से विशेषज्ञ इस बात पर जोर दे रहे हैं कि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में भावी पीढ़ी को वन एवं वन्यजीव संरक्षण से जोड़ा जाए।
स्कूली शिक्षा के दिनों से ही उन्हें इसे लेकर संस्कार देने होंगे, ताकि भविष्य में वे इस विषय पर अपनी समझ विकसित कर सकें। इससे वे न केवल वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण-संवर्द्धन से जुड़ेंगे, बल्कि अन्य को भी प्रेरित करेंगे।
लंबी प्रतीक्षा के बाद अब वन विभाग की समझ में यह बात आई है और उसने राज्य के दोनों टाइगर रिजर्व, छह राष्ट्रीय उद्यान, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व में 12 साल तक के बच्चों के लिए प्रवेश निश्शुल्क कर दिया है। इसे ठीक पहल कहा जा सकता है, जो बहुत पहले शुरू हो जानी चाहिए थी।
हिमालयी क्षेत्र में बुग्यालों पर मंडरा रहा खतरा
वैसे तो संपूर्ण उत्तराखंड ही नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण है, लेकिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में बुग्यालों की अनुपम छटा तो देखते ही बनती है। यूं कहें कि ये हिमालयी क्षेत्र की शान हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
स्नो लाइन और ट्री लाइन के बीच फैले हरी घास के मैदानों को बुग्याल कहा जाता है। सैलानियों और ट्रैकर के लिए ये बुग्याल किसी स्वर्ग से कम नहीं हैं, लेकिन इन पर भी खतरा मंडरा रहा है।
यद्यपि, बुग्यालों में पशुचारण पर अंकुश लगा है, लेकिन बेशकीमती जड़ी-बूटियों का विपुल भंडार होना इन पर भारी पड़ रहा है। साथ ही प्रकृति के कुपित होने के कारण अतिवृष्टि व भूस्खलन से बुग्याल दरक भी रहे हैं।
यद्यपि, अब विभाग ने इनका गहन सर्वेक्षण कराने का निश्चय किया है। इससे स्पष्ट हो सकेगा कि इनकी स्थिति कैसी है। फिर इसके आधार पर इनकी सूरत संवारने को कदम उठेंगे। इस पर सबकी नजरें टिकी हैं।
कैंपा के कार्यों में मनमानी चिंता का विषय
71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में विभिन्न विकास योजनाओं, परियोजनाओं के लिए वन भूमि लेना विवशता है। इनकी जद में आने वाले पेड़ों की प्रतिपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा)।
इसी प्राधिकरण के माध्यम से क्षतिपूरक वनीकरण होता है। इसके साथ ही वनों एवं वन्यजीवों के संरक्षण-संवर्द्धन के मद्देनजर संसाधनों की व्यवस्था, मानव-वन्यजीव संघर्ष की रोकथाम जैसे कार्यों में कैंपा की बड़ी भूमिका है। बावजूद इसके कैंपा के कार्यों में मनमानी चिंता का विषय भी बनी हुई है।
कुछ समय पहले कालागढ़ टाइगर रिजर्व वन प्रभाग और लैंसडौन वन प्रभागों में कैंपा के अंतर्गत हुए कार्य सुर्खियों में हैं। मामला उछलने पर दोनों प्रभागों में अब विशेष आडिट कराया जा रहा है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसी नौबत क्यों आ रही है। साफ है कि मानीटरिंग के मोर्चे पर कहीं खामी है। इसे दूर करने की आवश्यकता है।
गुलदारों के व्यवहार पर अध्ययन रिपोर्ट की प्रतीक्षा
यह किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुका है। अक्सर वन्यजीवों के हमलों की घटनाएं सामने आ रही हैं। इनमें भी सर्वाधिक हमले गुलदार के हैं।
ऐसे में गुलदारों की संख्या बढ़ने और इनके व्यवहार में बदलाव का अंदेशा जताया जा रहा, लेकिन अभी तक इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। इस सबके मद्देनजर वन विभाग ने गुलदारों पर रेडियो कालर लगाकर उनके व्यवहार के अध्ययन की ठानी।
अब तक विभिन्न क्षेत्रों में नौ गुलदारों पर रेडियो कालर लगाए जा चुके हैं, लेकिन सालभर से अधिक समय होने के बावजूद यह अध्ययन रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो पाई है। परिणामस्वरूप विभाग की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। वह भी तब, जबकि गुलदारों के आंतक ने पहाड़ से मैदान तक सभी जगह नींद उड़ाई हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विभाग जल्द यह अध्ययन रिपोर्ट जारी कर संघर्ष थामने को कदम उठाएगा।