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चुनाव और उप चुनाव के बावजूद पंचायतों में खाली पद भरने की चुनौती

चुनाव और उप चुनाव के बावजूद पंचायतों में प्रधान जैसे पद भी खाली रहना हैरत में डालता है। इसके कारणों की तह में जाना जरूरी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 21 Jan 2020 11:58 AM (IST)Updated: Tue, 21 Jan 2020 11:58 AM (IST)
चुनाव और उप चुनाव के बावजूद पंचायतों में खाली पद भरने की चुनौती
चुनाव और उप चुनाव के बावजूद पंचायतों में खाली पद भरने की चुनौती

उत्तराखंड। संभवत: यह पहला मौका है जब उत्तराखंड में पंचायतों के लिए लगातार दूसरी उपचुनाव कराने पर विचार किया जा रहा है। अक्टूबर में हुए पंचायत चुनाव में प्रदेश तीस हजार से ज्यादा पद रिक्त रह गए। इसके बाद उप चुनाव कराए गए, लेकिन हैरत यह है कि अब भी 200 से ज्यादा पंचायतों में प्रधान जी की कुर्सी खाली है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर लोकतंत्र का पहला पायदान माने जाने वाली पंचायतों को लेकर क्या लोगों की रुचि कम हो रही है अथवा उनमें जागरूकता की कमी के चलते यह नौबत आ रही है।

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फिलहाल ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी ही होगी, लेकिन वजह चाहे कुछ भी हो, लोकतंत्र के लिए यह संकेत अच्छा नहीं कहा जा सकता। पंचायत लोकतंत्र की सबसे निचली कड़ी होते हैं। इन्हें देश की जमीनी हकीकत का अंदाजा होता है। चूंकि जनता का प्रधानों से सीधा जुड़ाव होता है, लिहाजा माना जाता है कि पंचायतों की मजबूती से लोकतंत्र की मजबूती का सीधा संबंध होता है।

बहरहाल अक्टूबर में ये चुनाव राज्य के 13 जिलों में से 12 में संपन्न कराए गए। एकमात्र हरिद्वार जिले में ये चुनाव नहीं हुए। 12 जिलों के 89 विकासखंडों में संपन्न इन चुनाव में सर्वाधिक गंभीर स्थिति पंचायत सदस्यों के पदों पर रही। कुल 55 हजार पदों में से महज 25 हजार पदों पर ही प्रत्याशियों ने रुचि दिखाई। हालांकि बाद में हुए उपचुनाव में बड़ी संख्या में पद भर गए, लेकिन दो सौ पंचायतों में अब भी प्रधान का पद खाली है। ऐसे में एक बार फिर उपचुनाव होने हैं।

निश्चित तौर पर बिना प्रधान के पंचायतों का गठन करने में तकनीकी पेच तो है ही। कारणों की तह में जाएं तो कुछ तथ्यों पर नजर दौड़ाना आवश्यक है। मसलन यह भी माना जा रहा है किपंचायत राज एक्ट में हुए नए संशोधन भी इसकी एक वजह हो सकते हैं। संशोधन के तहत ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्यों के लिए शैक्षिक योग्यता में बदलाव किया गया। इसके साथ ही आरक्षण के निर्धारण के चलते भी कई गांवों में प्रत्याशी नहीं मिल पाए। हालांकि शैक्षिक योग्यता का तर्क भी पूरी तरह से सही नहीं लगता। वजह यह है कि उत्तराखंड देश के उन चुनिंदा राज्यों में शामिल है, जहां साक्षरता दर करीब 80 फीसद है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों से बढ़ रहे पलायन को भी एक वजह के तौर पर देखा जा रहा है।

पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के 16 हजार गांवों में से 1700 से ज्यादा गांव खाली हो चुके हैं। इसके अलावा सैकड़ों गांव ऐसे भी हैं, जहां लोगों की संख्या दहाई के आंकड़े को भी नहीं छू पा रही है। इतना ही नहीं, जिन गांवों की आबादी ठीक-ठाक भी है, वहां के परिवारों के ज्यादातर लोग दूसरे राज्यों में रह रहे हैं। इस पूरी बहस में तर्क-वितर्क अपनी जगह हैं, लेकिन यह सच है कि फिलहाल पंचायतों के लिए प्रत्याशी मिलना चुनौती बनता जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही इस स्थिति से निजात मिल जाएगी।


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