छात्र राजनीति में धन बल का बोल बाला
संवाद सहयोगी, लोहाघाट : छात्र संघ चुनाव में लिंगदोह समिति की सिफारिशों के लागू होते ही छा˜
संवाद सहयोगी, लोहाघाट : छात्र संघ चुनाव में लिंगदोह समिति की सिफारिशों के लागू होते ही छात्र संघ चुनाव के तौर तरीके बदल गए। छात्र संघ से जुडे छात्र नेताओं का कहना है कि आज की राजनीति व पहले की राजनीति में काफी अंतर देखने को मिल रहा है। पहले चुनाव में छात्र नेता छात्र हितों व जन मुददों के साथ साथ समाजिक कार्यो को लेकर चुनाव लड़ते थे। लेकिन अब सब विपरीत हो गया है। कालेज में अध्ययनरत छात्र छात्र एक बार नहीं तीन तीन बार चुनाव लड़ते थे। छात्र छात्राओं के बीच जाकर समस्याओं का निपटारा करना। कालेज से लेकर विभिन्न समाजिक व अन्य कार्यो में बढ़ चढ़कर प्रतिभा करने का मौका मिलता था। अब तो सिर्फ एक बार चुनाव लड़ना है। --------
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वर्ष 1994 में महासचिव व 1998 में अध्यक्ष पद पर रहे भास्कर मुरारी का कहना है कि अब की राजनीति में लिंगदोह समिति का शिकंजा है। पहले छात्र संघ चुनाव में एक जुट होकर चाहे कालेज के विकास कार्य हो या फिर क्षेत्रीय विकास की लड़ाई लड़ते थे। चुनाव लड़ने की बाध्यता नही होती थी। कालेज में अध्ययनरत होना चाहिए। एक बार चुनाव हारने के बाद अगले वर्ष फिर चुनाव लड़ने का मौका मिलता था। ========= फोटो: 5 एलजीटी पी 7
वर्ष 1992 में छात्र संघ महा सचिव पद रहे गोविंद बोहरा का कहना है कि उस समय कॉलेज छात्र संघ चुनाव की अलग ही पहचान होती थी। छात्र छात्राओं में जोश होता था। आंदोलन में सभी छात्र छात्राओं सहित व्यापारियों का सहयोग होता था। सभी छात्र छात्र आंदोलन में प्रतिभाग करते थे। अब तक छात्र छात्र सिर्फ राजनीतिक संगठनों से जुड़ गए है। वही तक कालेज की राजनीति सिमट गई। छात्र हितों व क्षेत्रीय मुद्दे तो कही से कही तक नहीं दिखाई देते।
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वर्ष 1992 उपाध्यक्ष 1993 अध्यक्ष पद पर रहे रमेश देव का कहना है उस समय की राजनीति में छात्र संघ की अपनी अलग पहचान होती थी। दो दो दिनों से आमरण अनशन होते थे। राज्य आंदोलन में छात्र संघ ही पूरे कालेज के छात्र छात्रा टूट पड़ते थे। प्रदेश स्तर के सम्मेलनों का आयोजन होता था। क्षेत्रीय मुददों व छात्र हितों सहित रोजगार के मुददों पर चर्चा होती थी। लेकिन अब तो सिर्फ पैसों की राजनीति रह गई। कालेज राजनीति से विकास के मुद्दे गायब हो गया है।
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वर्ष 1998 में महासचिव 1999 में छात्र संघ अध्यक्ष रहे ओंकार सिंह धौनी का कहना है कि उस समय चुनाव लड़ने की समय सीमा नही होती थी। तीन तीन बार चुनाव लड़ने का मौका मिलता था। जहां कमी रहती थी उसे पूरा करने का समय मिलता था। छात्र हितों के साथ कालेज की समस्याओं व क्षेत्रीय मुददों को प्रमुखता से उठाया जाता था। समाजिक कार्यो में भी बढ़-चढ़कर भागीदारी होती थी। इस समय की सकारात्मक सोच की बदौलत आज राजनीति में आने का मौका मिला।
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वर्ष 2008 में महासचिव पद पर रहे भुवन चौबे का कहना था कि उस समय के छात्र संघ चुनाव की अलग पहचान होती थी। छात्र छात्रा एकजुट होकर विकास के कार्यो को करते थे। अब सब कुछ बदल गया है। अब की राजनीति में क्षेत्रीय मुददे गायब है। कालेज की समस्याओं का नाम नहीं है। बाकी रही सही कसर लिंगदोह समिति ने कॉलेज की राजनीति को एक स्थान पर लाकर रख दिया है। कालेज चुनाव राजनीति की पहली सीढ़ी मानी जाती है।