बागेश्वरी चरखे से काफी प्रभावित हुए थे बापू, ले गए थे अपने साथ वर्धा आश्रम
कुमाऊं प्रवास के दौरान महात्मा गांधी को यह बागेश्वरी चरखा भेंट किया गया। तभी बापू इस आविष्कार से बेहद प्रभावित हुए और चरखा बनाने वाले जीत सिंह की प्रतिभा को सलाम किया।
बागेश्वर, [चंद्रशेखर द्विवेदी]: महात्मा गांधी जी के चरखे ने देश में स्वदेशी वस्त्रों की अलख जगाई तो यही काम पहाड़ में बागेश्वरी चरखे ने किया। कुमाऊं प्रवास के दौरान महात्मा गांधी को यह बागेश्वरी चरखा भेंट किया गया। तभी बापू इस आविष्कार से बेहद प्रभावित हुए और चरखा बनाने वाले जीत सिंह की प्रतिभा को सलाम किया। वह इस चरखे को अपने साथ वर्धा आश्रम मुम्बई ले गए।
गांधी जी की स्वदेशी अपनाओ प्रेरणा से ही पहाड़ी भू-भाग में भी ऊन की कताई-बुनाई का व्यापक तरीके से काम होने लगा था, लेकिन तब लोग हाथ से ही यह काम कर रहे थे। 1926 में जीत सिंह टंगड़िया ने ऊनी चरखे का निर्माण किया। धीरे-धीरे इस चरखे ने अपनी धमक पूरे पहाड़ में जमा ली। 1929 में महात्मा गांधी कौसानी प्रवास पर थे। वहां बागेश्वरी चरखा के अविष्कारक जीत सिंह टंगड़िया ने उन्हें यह भेंट किया।
यह पैर से चलाए जाने वाला उस समय देश का पहला चरखा था। इससे पहले हाथों से चलाए जाने वाले चरखे से ही कताई हुआ करती थी। तब महात्मा गांधी उनके इस अविष्कार से काफी प्रभावित हुए। महात्मा बागेश्वरी चर्खा अपने साथ वर्धा आश्रम मुम्बई ले गए। उसके बाद से पूरे देश में ही पैर से चलाए जाने वाले चरखे प्रचलन में आए। मांग बढ़ते देख जीत सिंह टंगड़िया ने 1934 में बोरगांव, अमसरकोट में चरखा निर्माण कारोबार की स्थापना की। हालांकि धीरे-धीरे यह बागेश्वरी चरखा अतीत का हिस्सा बन गया। फिर भी कुछ हरकरघा कारीगर पहाड़ में आज भी बागेश्वरी चरखे में कताई करते हैं।
हेम प्रकाश सिंह टंगड़िया ( प्रपौत्र, स्व. जीत सिंह टंगड़िया) का कहना है कि लकड़ी उपलब्ध नहीं होने व सरकार की उदासीनता से यह कारोबार बंद हो गया हैं। हम चाहते है कि यह काम फिर से शुरु हो। लेकिन किसी तरह की मदद नही मिल रही हैं। आज भी यहां लोग दूर-दूर से इस चरखे को देखने के लिए पहुंचते हैं।
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