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जंगलों में आग लगने से बहकर बर्बाद हो रही हिमालयी क्षेत्र की उपजाऊ मिट्टी

चौतरफा चुनौतियों वाले पहाड़ की माटी अब पराई होने लगी है। दावानल के बाद जंगल से मिट्टी बहकर बर्बाद होने लगी है।

By JagranEdited By: Published: Sat, 05 Dec 2020 06:58 AM (IST)Updated: Sat, 05 Dec 2020 06:58 AM (IST)
जंगलों में आग लगने से बहकर बर्बाद हो रही हिमालयी क्षेत्र की उपजाऊ मिट्टी
जंगलों में आग लगने से बहकर बर्बाद हो रही हिमालयी क्षेत्र की उपजाऊ मिट्टी

दीप सिंह बोरा, अल्मोड़ा

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चौतरफा चुनौतियों वाले पहाड़ की माटी अब पराई होने लगी है। अपनी जमीन से अनमोल मिट्टी के जुदा होने की बड़ी वजह बन रही मानवजनित आपदा 'वनाग्नि'। हरेक वर्ष लपटों से खाक होते पर्वतीय जिलों में 2200 से 3200 हेक्टेयर वन क्षेत्रों से बरसात में 70 से 80 टन उपजाऊ मिट्टी पहाड़ से नाता तोड़ रही है। यानी वनाग्नि से कमजोर पड़ती जा रही मिट्टी अतिवृष्टि से बहकर सीधे बर्बाद हो रही है। इसके साथ जैवविविधता को जिंदा रखने वाले पोषक तत्व भी खत्म होते जा रहे। शोध विज्ञानी आगाह करते हैं कि यदि वनाग्नि पर नियंत्रण को कारगर नीति न बनी तो नदियों, उनके सहायक जलस्रोतों व धारों को बचाना मुश्किल हो जाएगा।

आपदा के लिहाज से अतिसंवेदनशील हिमालयी राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा (मिट्टी) भी संकट में है। वनाग्नि से जंगलात की उर्वरा मिट्टी का स्वरूप जहां बिगड़ रहा है, वहीं उसके पोषक तत्व भी तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। बरसात में अतिवृष्टि से बहुमूल्य मृदा तेज वेग के साथ बहकर बर्बाद हो रही है। चिंताजनक पहलू यह है कि मृदा क्षरण का सीधा असर जलस्रोतों व नदियों पर पड़ने लगा है। मिट्टी में जलधारण की ताकत घटने से भूगर्भीय जल भंडार तक पर्याप्त वर्षाजल नहीं पहुंच रहा। इससे जलस्रोतों का प्रवाह कम होने लगा है।

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लगातार गिर रहा भूजल स्तर

जीवनदायिनी कोसी को बचाने के लिए पिछले तीन दशक से शोध एवं अध्ययन में जुटे वरिष्ठ शोध विज्ञानी एवं पूर्व नेशनल जीयोस्पेशल चेयरप्रोफेसर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भारत सरकार) प्रो. जीवन सिंह रावत कहते हैं कि मिट्टी की ऊपरी सतह जल कर खाक होने से अतिवृष्टि से कमजोर पड़ चुकी कई टन मिट्टी बहकर बर्बाद चली जाती है। इससे पर्वतीय जमीन की जलधारण क्षमता भी कमजोर पड़ रही। नतीजतन, भूजल स्तर घटने से स्रोत सूखने लगे हैं।

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ऐसे होता है आग से नुकसान

दरअसल, वन क्षेत्रों का अपना प्राकृतिक विज्ञान होता है। चौड़ी पत्ती वाले जंगल, नीचे छोटी-छोटी झाड़ियां व लताएं। झड़ी सड़ी पत्तियों की परत। सबसे नीचे घास। तेज बारिश हुई भी तो ये परतें मोटी बूंदों को अपने में समेट लेती हैं, जो भूजल भंडार तक धीरे-धीरे पहुंचती हैं। आग से ये अहम परतें जलकर नष्ट होने से अतिवृष्टि में कमजोर पड़ चुकी मिट्टी तेज बहाव में बह जाती है। अकेले कुमाऊं में 65 से 70 फीसद चीड़ बहुल जंगलात वनाग्नि से बेजार है। यहां करीब 60 प्रतिशत वर्षाजल कई टन मिट्टी बहाकर बर्बाद हो जाता है।

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'आग से उत्तराखंड के वनों में उपजाऊ मिट्टी व उसमें मौजूद पोषक तत्व खत्म होते जा रहे हैं। इन्हें दोबारा पाने में वर्षो बीत जाएंगे। यही मृदा क्षरण भूस्खलन का कारण बन रहा। आग से मिट्टी की पकड़ ढीली पड़ जाती है। अतिवृष्टि में मिट्टी का कटाव तेज हो जाता है। मिट्टी बचाने के लिए वनाग्नि नियंत्रण को प्रभावी कदम व कारगर नीतियां बनानी होंगी। आग की घटनाएं नहीं रुकी तो नदियों को पुनर्जीवित करने का सपना साकार नहीं हो सकेगा।

- प्रो. जीवन सिंह रावत, पूर्व विभागाध्यक्ष भूगोल एसएसजे परिसर अल्मोड़ा कुमाऊं विवि'

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