जब पियरी में सजी गंगा महिमा के गीत गाते वाराणसी के प्रकाश टाकीज पहुंचती थी गंवई महिलाओं की टोलियां
शहर बनारस में यह जलवा था गीत के मुखड़े के नाम से ही 22 फरवरी 1963 को प्रकाश टाकीज में भव्य प्रीमियर के साथ रिलीज हुई भोजपुरी फिल्म का जिसे देखने के पहले गंवई महिलाएं गंगा मइया को चढ़ाई गई पियरी पहनकर प्रकाश टाकीज पर कतार लगाती थीं।
वाराणसी [कुमार अजय]। न तो देव मासों, सावन या कार्तिक की बयार, न ही पंचांग में टंका कोई तीज-त्योहार, इसके बावजूद शहर के लहुराबीर चौराहा से जुडऩे वाली हर सड़क पर मंगलगीत गाते पियरी साड़ी में सजी गंवई महिलाओं की छोटी-छोटी टोलियां इलाके में नए-नए बने सिनेमा हाल प्रकाश टाकीज की ओर बढ़ती हुई दिखाई देतीं थीं। गीत के शब्द व स्वर लहरियां नजदीक से नजदीक तर आते 'हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो, सइयां से करि द मिलनवा हो राम की शक्ल में स्पष्ट होती और उभरती हुई।
शहर बनारस में यह जलवा था गीत के मुखड़े के नाम से ही 22 फरवरी 1963 को प्रकाश टाकीज में भव्य प्रीमियर के साथ रिलीज हुई भोजपुरी फिल्म का, जिसे देखने के पहले गंवई महिलाएं गंगा मइया को चढ़ाई गई पियरी पहनकर प्रकाश टाकीज पर कतार लगाती थीं। फिल्म की शानदार पटकथा लिखी थी लहुरी काशी के नाम से ख्यात गाजीपुर के ही उभरते कलाकार व फिल्म मेकर नाजिर हुसैन ने। निर्देशक थे भोजपुरी फिल्मों के विमल राय कहे जाने वाले कुंदन कुमार स्मृतियों के वातायन से दशकों बाद भी पुरवइया के झोंके जैसी ताजगी का अहसास कराने वाले उन बीते दिनों की यह धुंधली झलकियां आज भी पुलकित कर जाती हैं अशोक पांडेय को, जो भाजपा के वरिष्ठ नेता से भी अधिक फिल्मों सहित अन्य विषयों के इनसाइक्लोपीडिया के रूप में ज्यादा लोकप्रिय हैं।
बताते हैं अशोक कि किस तरह जिद करके उन्होंने अपने माता-पिता के साथ यह फिल्म देखी थी। वे कहते हैं कि माता-पिता के साथ देखी गई यह उनके जीवन की अकेली फिल्म कथा है। इससे समझा जा सकता है कि फिल्म कितनी साफ-सुथरी और पारिवारिक रही होगी। वह बताते हैं कि सक्षम अभिनेता असीम कुमार व चुलबुले व संजीदे दोनों ही तरह की भूमिकाएं दक्षता के साथ निभाने का दम रखने वाली बनारसी अभिनेत्री कुमकुम की जोड़ी वाली इस फिल्म ने सप्ताह नहीं, कई महीनों तक टिकट की खिड़की पर धमाल मचाए रखा। पुरबिया समाज में श्रद्धा और आस्था के अलावा यहां दैनंदिन जीवन के सुख-दुख के साथ गंगा मइया का कितना भावनात्मक और प्रगाढ़ नाता है। इसी भाव को केंद्र में रखकर इसके इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी ने तब सही मायनों में तत्कालीन जनजीवन पर गहरी छाप छोड़ी थी, जहां तक बात हासिलात की है अपार लोकप्रियता बटोरने के साथ ही इस फिल्म ने भोजपूरी फिल्मों को पैर जमाने की खातिर पुख्ता जमीन दी।
फिल्म अभिनेता व पुराने रंगकर्मी अशोक सेठ का मानना है कि विदेशिया के बाद यह दूसरी ऐसी फिल्म थी जिसने भोजपुरी क्षेत्र की असल रेशमी स्पर्श वाली भोजपुरी बोली को बड़े पर्दे पर स्थापित किया। भोजपुरी फिल्मों के नाम पर बेढंगी और मिलावटी भाषा के साथ बेहूदा फूहड़पन वाली परोसी जा रही भाषाई फिल्मों के आज के दौर में 'हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो जैसी कालजयी कृति की महत्ता को समझना-समझाना शायद मुश्किल है।
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
वास्तव में इस फिल्म की छंदमय कहानी और रवानी झर-झर बहते झरने के कल-कल पानी सरीखी है। इस शानदार शाहकार के कल्पनाकार थे पड़ोसी जिले गाजीपुर के दिलदार नगर क्षेत्र स्थित उसिया गांव निवासी उस दौर के युवा व धुनी रचनाकार नाजिर हुसैन जिन्होंने बाद में भी कुछ यादगार पुरबिया फिल्में बनाईं। उनकी जिद थी की उन्हेंं अपनी पटकथा पर मायानगरी मुंबई की सफल हिंदी फिल्मों के टक्कर की एक नायाब फिल्म बनानी है। सिफत यह कि राह में रोड़ों की भरमार के बावजूद कठिन संघर्ष के दम पर वह अपने मकसद में कामयाब रहे।
फिलिम बनी त भोजपुरिए में बनी
बुजुर्गवार सिने प्रेमी बताते हैं कि भोजपुरी में एक स्तरीय फिल्म बनाने की धुन में हुसैन अपनी पटकथा (स्क्रिप्ट) लेकर बालीवुड और टालीवुड के कई बड़े नामदार फिल्म प्रोड्यूसरों व निर्देशकों से मिले उनकी पटकथा को सभी ने सराहा भी, मगर उन सबकी राय थी कि फिल्म हिंदी या बंगला में बनाई जाए। इधर नाजिर की हठ थी कि फिलिम बनी त भोजपुरिए में बनी। अंतत: उन्होंने अपनी मन की ही सुनी। गीतकार शैलेंद्र गायिका लता मंगेशकर तथा संगीतकार चित्रगुप्त जैसे दिग्गजों को एक छत के नीचे इकट्ठा कर बड़े ही आत्मविश्वास से अपनी कल्पना को हकीकत की जमीन दी और उसी जमीन पर अपनी कामयाबी की भी कथा लिखी। सस्ती के उस दौर में भी नाजिर कि इस फिल्म के निर्माण में पांच लाख की रकम खर्च हुई।
बाबू राजेंद्र प्रसाद ने सदाकत आश्रम में देखी फिल्म
जिन दिनों हुसैन अपनी चप्पलें घिसते फिल्मकारों के घर के चक्कर लगा रहे थे तब उन्होंने अपने संकल्प के लिए स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद से भी आशीर्वाद का संबल पाया था। फिल्म जब रीलिज हुई तो उन दिनों राजेंद्र बाबू पटना के सदाकत आश्रम में अस्वस्थ चल रहे थे। बताते हैं कि उन्होंने खुद अनुरोध करके बड़े चाव से आश्रम में ही प्रोजेक्टर पर ही फिल्म देखी और उसे सराहा भी, दुर्भाग्य कि इसके कुछ दिन बाद ही 28 फरवरी को उनका निधन हो गया।