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हिंदी दिवस : हिंदी साहित्य का आखिरकार बड़ा केंद्र रही है अपनी काशी

हिंदी को इस स्थिति तक पहुंचने में लंबा संघर्ष करना पड़ा है, और इस संघर्ष की जन्मभूमि काशी रही है। तब हिंदी का नाम सिर्फ हिंदी नहीं खड़ी बोली हिंदी हुआ करता था।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 14 Sep 2018 11:58 AM (IST)Updated: Fri, 14 Sep 2018 11:58 AM (IST)
हिंदी दिवस : हिंदी साहित्य का आखिरकार बड़ा केंद्र रही है अपनी काशी
हिंदी दिवस : हिंदी साहित्य का आखिरकार बड़ा केंद्र रही है अपनी काशी

वाराणसी [काशीनाथ सिंह] : हिंदी को इस स्थिति तक पहुंचने में लंबा संघर्ष करना पड़ा है, और इस संघर्ष की जन्मभूमि काशी रही है। तब हिंदी का नाम सिर्फ हिंदी नहीं खड़ी बोली हिंदी हुआ करता था। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में नवजागरण के साथ ही आधुनिक युग के निर्माता हिंदी के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र का आविर्भाव हुआ। जिन्होंने दोहे के रूप में एक नारा दिया-

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निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।

उन्होंने हिंदी का नाम नहीं लिया। निज भाषा कहा। निज भाषा का मतलब हिंदी भाषियों के लिए हिंदी, कर्नाटक वालों के लिये कन्नड़, तमिलों के लिए तमिल व बंगालियों के लिए बंगला। उन्होंने हिंदी के वर्चस्व की बात नहीं की थी। उन्होंने सिर्फ इसे कहा ही नहीं बल्कि जहां भी व्याख्यान दिया, नाटक किया, वहां यह दोहा कहा। भारतेंदु ने अपने समय के लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए भारतेंदु मंडल बनाया। इनका काम केवल लिखना ही नहीं था, स्वदेशी आंदोलन के साथ जुड़कर गुलामी के विरुद्ध जनता को खड़ा करना भी था। हिंदी उस समय आत्म सम्मान व दृढ़संघर्ष का प्रतीक बन गई थी। बाद में प्रकाशन की समस्या को हल करने के लिए 1857 में काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गई। यह भारतेंदु के बाद हिंदी प्रचार-प्रसार का दूसरा बड़ा मंच था। हिंदी की गौरवशाली परंपरा, जिसका इतिहास हजार साल पुराना है, उसे संकलित, संपादित व प्रकाशित किया जाने लगा। जो हिंदी भारतेंदु काल में अव्यवस्थित रह गई थी उसे परिष्कृत करने का काम शुरू हुआ और लेखकों की एक नई फौज तैयार हुई। इसे ही हिंदी साहित्य में द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। बाबू श्यामसुंदर दास स्वयं सभा के संस्थापकों में से थे। महात्मा गांधी के आने तक हिंदी स्वाधीनता संग्राम की भाषा बन गई थी। सामान्य जन व किसानों के बीच अपनी बातें पहुंचाने के लिए प्राय: हर नेता का हिंदी से सुपरिचित होना आवश्यक समझा जाने लगा। 

ये ही दिन थे जब जनता के लेखक प्रेमचंद का पदार्पण हुआ। उन्होंने हिंदुस्तानी को अपनी भाषा बनाया और होरी, धनिया, धुनिया जैसे पात्रों को विषय। वे स्वाधीनता के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता के घोर समर्थक थे और ऐसी हिंदी में लिखा जो आम आदमी की समझ मे आ जाय। हिंदी के आकर्षण के लिए जासूसी रचनाओं के लेखक देवकी नन्दन खत्री को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। ये भी इसी नगर के थे। जिन्हें पढऩे के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी। इसी नगर की दूसरी विभूति थे जयशंकर प्रसाद जिन्होंने हिंदी का दूसरा चेहरा पेश किया जो बहुत ही संपन्न व परिनिष्ठित था। 

महामना ने लड़ी थी लिपि की लड़ाई

इस क्रम में महामना मदनमोहन मालवीय को भी याद करना जरूरी है। उन्होंने कचहरी में फ़ारसी की जगह देवनागरी लिपि के प्रयोग की लड़ाई लड़ी। काशी हिंदू विश्व विद्यालय में हिंदी विभाग खोला जहां हिंदी पढऩे के लिए दक्षिण भारत के विद्यार्थी आया करते थे। इसी विभाग में हिंदी समीक्षा के सर्वश्रेष्ठ समीक्षक आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी थे। 

पराड़कर जी ने दिए अंग्रेजी के हिंदी शब्द

स्वाधीनता संग्राम के दिनों में संपादक बाबू विष्णु राव पराड़कर को नहीं भूला जा सकता जिन्होंने अंग्रेजी के ऐसे शब्दों के विकल्प दिए जिन्हें विकल्पहीन समझा जाता था। ये शब्द हिंदी के माध्यम से स्वाधीनता संग्राम के लंबे प्रवाह का परिणाम थे जिससे काशी की भूमिका के महत्व की कमी उपेक्षित नहीं की जा सकती।

संस्कृति संग साहित्य का केंद्र रही काशी

आचार्य शुक्ल से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तक काशी संस्कृति का ही नहीं साहित्य का भी केंद्र बनी रही, क्योंकि उन्हीं दिनों गीतकार शंभूनाथ सिंह, आलोचक बच्चन सिंह, नामवर सिंह, कवि केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, पत्रकार-लेखक विष्णु चन्द्र शर्मा, विद्या सागर नौटियाल, कथाकार डॉ. शिवप्रसाद सिंह जैसी प्रतिभाओं का निर्माण हुआ। अर्थात काशी की साहित्यिक-सांस्कृतिक केन्द्रीयता लगभग 1960 तक बनी रही, लेकिन उसके बाद काशी ही नहीं कोई भी शहर साहित्यिक-सांस्कृतिक केंद्र ही नहीं रह गया, हालांकि साहित्यकार आते रहे और लेखन जारी रहा। केन्द्रीयता की जगह राजधानियों ने ले ली- खासतौर से दिल्ली। 

-लेखक प्रख्यात कथाकार हैं।


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