Varanasi Gyanvapi Case : जब जमीन के मालिक भगवान विश्वेश्वर तो वक्फ किसने किया, हिंदू भक्तों ने दिया हवाला
वकील विष्णुशंकर जैन ने न्यायालय में दाखिल हलफनामे में कहा है कि मंदिर की जमीन औरंगजेब की नहीं थी उसने भगवान का मंदिर तोड़ा था वह जमीन भगवान विश्वेश्वर की थी तो वक्फ बोर्ड को वक्फ (दान) किसने किया
जागरण संवाददाता, वाराणसी : ज्ञानवापी मामले में मुस्लिम पक्ष द्वारा सर्वे के विरुद्ध दाखिल किए मामले में पूजा का अधिकार मांग रही हिंदू महिलाओं के वकील विष्णुशंकर जैन ने न्यायालय में दाखिल हलफनामे में कहा है कि मंदिर की जमीन औरंगजेब की नहीं थी, उसने भगवान का मंदिर तोड़ा था, वह जमीन भगवान विश्वेश्वर की थी तो वक्फ बोर्ड को वक्फ (दान) किसने किया। चूंकि 1936 में दीन मुहम्मद द्वारा दाखिल मुकदमे में भारत सरकार (ब्रिटिश काल के दौरान) ने सिविल सूट में दाखिल लिखित बयान में कहा है कि 'भूमि का पूरा भूखंड जिस पर मस्जिद, 'पक्के' आंगन, लावारिस कब्र, सामने सीढ़ी गेट के चारों ओर 'पक्के' बाड़ों के साथ और एक 'पीपल' पेड़ स्टैंड, सरकार का है और इसे कभी समर्पित नहीं किया गया है और न ही मस्जिद को समर्पित किया जा सकता है।
अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन के माध्यम से दायर एक हलफनामे में, पांच महिला भक्तों में से तीन ने कहा कि 1936 में दीन मोहम्मद ने हिंदू समुदाय के किसी भी सदस्य को पक्षकार बनाए बिना दीवानी मुकदमा दायर किया था। उन्होंने केवल जिला मजिस्ट्रेट, बनारस के माध्यम से तत्कालीन ब्रिटिश भारत के राज्य सचिव को पक्षकार बनाया था। उनकी अपील थी कि अंजुमन इंतजामिया मसाजिद, बनारस के पक्ष में यह घोषणा की जाए कि वादी (मोहम्मद) के कब्जे में शहर में स्थित भूमि (ए बीघा नौ बिस्वा और छह धुर) के साथ-साथ बाड़े के चारों ओर वक्फ है। मुसलमानों को विशेष रूप से 'अलविदा' नमाज करने और आवश्यकता और अवसर के रूप में अन्य धार्मिक और कानूनी अधिकारों का प्रयोग करने का अधिकार है।
दाखिल शपथपत्र में कहा गया है, ‘‘यह अभिवेदन दिया जाता है कि मुसलमानों ने केवल घोषणा का अनुरोध करते हुए उपर्युक्त मुकदमा दायर किया था। मुकदमे में हिंदू समुदाय से किसी भी व्यक्ति के खिलाफ अभियोग नहीं चलाया गया था। इसलिए इस मुकदमे में पारित आदेश हिंदू समुदाय के किसी भी सदस्य के लिए बाध्यकारी नहीं है, लेकिन हिंदू समुदाय के सदस्य किसी भी दस्तावेज, मानचित्र, साक्ष्य या किसी गवाह के बयान का संदर्भ दे सकते हैं या उस पर निर्भर कर सकते हैं।’’
अखिल भारतीय संत समिति के महामंत्री स्वामी जीतेन्द्रानन्द सरस्वती बताते हैं कि पुरातात्विक सर्वेक्षण की मांग को लेकर वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने भी इससे संबंधित कागजात भी साक्ष्य के तौर पर न्यायालय में पेश किए थे। इसमें आगे बताया गया है कि लिखित बयान में कहा गया था, ‘‘ वहां स्थित मूर्तियां एवं मंदिर भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत होने के बहुत पहले से मौजूद हैं। गैर-मुसलमान अपने धार्मिक उद्देश्यों के लिए भूमि का उपयोग अधिकार के रूप में करते रहे हैं और इस पर उनका अधिकार है। यह आरोप निराधार हैं कि मस्जिद के प्रभारी व्यक्तियों ने उन्हें इसकी अनुमति दी थी।’’
कागजात बताते हैैं कि 1936 में चले मुकदमे में प्रो. एएस अल्तेकर समेत कई लोगों ने बयान दिए। बनारस के ही मूल निवासी यूनिवर्सिटी आफ लंदन के इतिहासकार प्रो. परमात्मा शरण की गवाही प्रमुख थी। 14 मई 1937 को अतिरिक्त सिविल जज बनारस की अदालत (वाद संख्या 62-1936) में प्रतिवादी संख्या एक ब्रिटिश सरकार की ओर से बतौर साक्षी बयान दिया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से प्रोविंशियल गवर्नमेंट आफ मुगल्स पर किए गए शोध का हवाला दिया। औरंगजेब के दरबार के इतिहास लेखक मुश्तैद खां द्वारा लिखित मा आसिरे आलम गिरि भी पेश किया तो पुरातात्विक दृष्टि से आंखों देखी का भी जिक्र किया। इस पर सब जज बनारस ने 15 अगस्त 1937 को मस्जिद के अलावा अन्य ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे का अधिकार नामंजूर कर दिया था। हाईकोर्ट ने भी 10 अप्रैल 1942 को सब जज के फैसले को सही ठहराते हुए अपील को निरस्त कर दिया था। हलफनामा प्रबंधन समिति अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद की याचिका के जवाब में दायर किया गया है, जो वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करती है, जिसमें मस्जिद के हालिया सर्वेक्षण को रद्द करने की मांग की गई है।