काशी का अनोखा जल उत्सव 'बुढ़वा मंगल' की देखकर रानाई, लेडी डफरिन तक चकराई
काशी के इस ठाठदार उत्सव का रंग ही इतना चटख था कि आंखों में सुनहरे सपने की तरह अक्श हो जाता था। देशी-विदेशी बहुत से मेहमान समय-समय पर अति विशिष्ट अतिथि के रुप में इस उत्सव में शामिल हुए और इसकी रंगतों के मुरीद होकर लौटे।
वाराणसी, जेएनएन। मार डाला... मार डाला... जुल्मी अदाओं ने मार डाला...। ग्रामोफोन के रेकार्ड में ढला स्वर कोकिला अनवरी बाई का यह लोकप्रिय गीत की आज की तारीख में कभी उत्सव प्रिय काशी में गंगा की लहरों पर स्वच्छंद तैरते बजड़ों पर सजने वाले विराठ जल उत्सव बुढवा मंगल की आखिरी यादगार है। सम्मत (संवत) के प्रतीक रूप में होलिकादहन व धुलिवंदन पर रंग खेलने के बाद पड़ने वाले दूसरे मंगल को गंगा की उमगती लहरों पर विशालकाय कच्छों (बजड़ों) की पटान। साथ में इन सजीले तिरते मंचों से उठकर कर्णकुहरों के रस्ते दिल तक उतर जाने वाली तीपें आलाप और तान बीते कल की बात हुई।
रुस्तम अली मेरो बांको सिपहिया
इतिहास की बात करें तो बुढ़वा मंगल उत्सव की शुरुआत कब हुई और आयोजन का प्रथम सूत्रधार कौन था ऐसी ढेर सारी जिज्ञासाओं का तथ्यात्मक समाधान अब संभव नहीं रहा। यत्र-तत्र बिखरे दस्तावेजों की गवाही के मुताबिक पौराणिक कथाओं में वर्णित काशी के वृद्धअंगारक उत्सव की रंगीनियों को टुकड़े-टुकड़े संजोकर फिर एक बार 17 वीं सदी में इसे तीन दिनी रंगीले उत्सव के रुप में स्थापित करने का श्रेय मीर रूस्तम अली को जाता है। अवध के नवाब हजरत सआदत खां के चकलेदार मीर रुस्तम अली पुरी तरह बनारस के रंग में रंग गए थे। उनकी मीर घाट वाली कोठी पर होली ही नहीं दीपावली और दशहरा आदि उत्सव भी बड़ी शान से मनाए जाते थे। सन 1730 में चकलेदार का ओहदा पाने के बाद सन 1735 में उन्होंने मीर घाट पर एक शानदार पुश्ता (कोठी) बनवाया। ज्यादातर सुविज्ञ लोग वृद्धअंगारक उत्सव के बुढवा मंगल संस्करण में ढल जाने का कालखंड 17 वीं सदी को ही मानते हैं। यही वजह है कि कभी चलते कभी ठिठकते 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक अपनी रंगत के संग वजूद में रहे उत्सव की शुरुआत मीर रुस्तम अली के नाम से पेश इस नज्म के साथ ही होती रही। कहां गयो मेरो होली के खेलइया रुस्तम अली मेरो बांकों सिपहिया।
लेडी डफरिन ने भी देखा गंगा की लहरों पर सजे उत्सव का नजारा
काशी के इस ठाठदार उत्सव का रंग ही इतना चटख था कि आंखों में सुनहरे सपने की तरह अक्श हो जाता था। देशी-विदेशी बहुत से मेहमान समय-समय पर अति विशिष्ट अतिथि के रुप में इस उत्सव में शामिल हुए और इसकी रंगतों के मुरीद होकर लौटे। इन्हीं खुसुसी मेहमानों में से एक थीं तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन की पत्नी लेडी डफरिन। सन 1884 से 1888 के बीच उन्हें भी एक बार दुनिया के इस अनुठे जलउत्सव के दीदार का मौका मिला और वे इसकी रानाईयों पर कुर्बान हो गईं। अपनी मां को लिखे गए पत्र में जलउत्सव की तस्वीरों को शब्द चित्रों में ढालते हुए लेडी डफरिन ने लिखा (शाम को हम जलउत्सव (बुढ़वा मंगल) देखने गए। यह उत्सव गंगा की धारा पर तैर रहे बजड़ों पर सजाया जाता है। यह उत्सव वर्ष में बस एक बार आयोजित होता है। बनारस के प्रत्येक आदमी इसमें शामिल होता है। हमने यहां कई विचित्र नावें देखीं। इनमें से कई तो दो-दो मंजिल की थीं। आदमियों से ठसाठस भरीं थीं। नावों में नाच हो रहा था। एक स्त्री घुटनों के बल बैठी थी। उसने अपना मुंह ढक लिया। दातों में तलवार दबाकर वह इस कदर घूरने लगी जैसे वह रबड़ की बनी हो। वह इतनी तेजी से घूर रही थीं कि तलवार जरा सी भी शरीर से छू जाती तो वह कट जाती। साथ में वह दोनों हाथ ही तेजी से घूमा रही थी। हाथों को सबसे अधिक खतरा था)।
एक अंग्रेज पर्यटक की गवाही
राजा साहब के निमंत्रण पर हमने गंगा में होने वाला नाच देखा। भारतीय नृत्य से यूरोपियन बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। पर यहां के लोग रातभर बैठकर नाच देखते रहते हैं। नर्तकियां बारी-बारी से आकर नाचती रहती हैं। नाच का स्थान खूब आलोकित रहता है। नर्तक दल में प्रायः सात आदमी होते हैं। दो नर्तकियां, तीन वादक और दो मसालची। नर्तकियों के दोनों ओर मसालची खड़े होते हैं। ये मसालची नृत्य की मुद्रा के अनुसार मशाल की रोशनी को धीमा या तेज करते रहते हैं।
...और लफंगई हावी होती गई उत्सव पर
प्रमाण मिलते हैं कि 1920 में जलियावाला बाग कांड के शोक में बनारस के रईसों ने मेला स्थगित कर दिया। कुछ लोगों के प्रयास से 1924 में मेला फिर शुरु हुआ तो जरूर पर अपने असली रसरंग में नहीं आया। उल्टे मेले में गुंडागर्दी, लफंगई और छिछोरई बढ़ती गई। काशी नरेश व नगर के रईसों ने मेले से किनारा कर लिया। मेला चला तो 1935-36 तक किंतु हुल्लड़ का पर्याय बन गया। सत्तर-अस्सी के दशक में भी कुछ संस्कृति प्रेमियों ने उत्सव प्रतीक रुप में सजाया। मगर पूरा आयोजन दो-चार नौकाओं तक ही समिटा रहा।