Tulasi Jayanti : काशी में संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के अमर चिह्न अब भी हैं मौजूद
काशी में संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के अमर चिह्न अब भी मौजूद हैं और उनके संरक्षण की भी और जरूरत है।
वाराणसी [श्यामबिहारी श्यामल]। सोलहवीं शताब्दी की काशी। एक सुबह। श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में जुटे कुछ साधु और विद्वानों के तेवर और मुख-मुद्रा अयंत उग्र। उनके स्वर और शब्द जैसे अंगारों में तब्दील हो गए हों। सबके गुस्से के केंद्र में हैं गोस्वामी तुलसीदास। कारण है, उनका नवरचित महाकाव्य 'रामचरित मानस' जो राम की कथा है और जिसे उन्होंने जन-भाषा अवधी में रच कर जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया हो।
एक साधु ने चीखकर कहा, '... तुलसीदास ने रामकथा को सरलीकृत कर शास्त्र की गरिमा को उच्चासन से पदच्युत किया है, वह अपराधी है...'
दूसरे ने पूर्ववर्ती के स्वर से स्वर मिलाया, '...तुलसी ने शास्त्रीय गरिमा को बहुत विकट आघात पहुंचाया है, वह कभी क्षमा का पात्र नहीं हो सकता...'
तीसरे ने अपना राग आलापा, '...कहां- कहां से आकर लोग हमारी काशी में अपने झूठे पांडित्य की पताकाएं लहराते रहें और और हम मूकदर्शक बने रहें ?... ऐसा नहीं हो सकता, अब प्रतिकार होगा, बहिष्कार होगा..'
चौथे के तेवर और कड़े, '... हमारे ही सामने शास्त्र की गरिमा का क्षरण किया जाए और हम मुंह सिले चुपचाप बैठे रहें?... कतई नहीं, अब ऐसा नहीं होगा...'
पांचवें का क्रोध सातवें आसमान पर, '... कहां महर्षि वाल्मीकि कृत सर्वोकृष्ट भाषा-व्यंजना वाली वह शिरोधार्य संस्कृत रामायण और कहां गंवार अवधी बोली-बानी में यह सरलीकृत अति साधारण अस्वीकार्य राम चरित मानस!...'
मंदिर से बाहर निकलते हुए वृद्ध महंत जी ने हाथ जोड़े अतिशय विनम्रतापूर्वक सबका ध्यान खींचा, '...काशी के आप सभी विद्वान स्वयं में अनूठे हैं... प्रत्येक महानुभाव विशिष्ट और अपने आप में अनुपम...'
सारे साधु और विद्वान शांत। सबने अभिवादनपूर्वक उनके कथन का स्वागत किया। महंत जी ने हाथ जोड़े-जोड़े ही आग्रह किया, '...आप लोगों की अनुमति हो तो मैं एक विनम्र सुझाव सामने रखूं... सबकी सहमति हो तभी कोई बात अब आगे बढ़े..'
'...आप किस संदर्भ में बात कर रहे हैं ?...' भीड़ से एक प्रश्नवाचक स्वर गूंजा।
'...इसी राम-कथा और तुलसीदास संदर्भ पर, जिसे लेकर आपलोग आंदोलित हैं...' महंत जी ने स्पष्ट किया।
'...आप इसमें क्या और क्यों हस्तक्षेप करना चाहते हैं ?...' भीड़ से यह दूसरा स्वर फूटा। कई अन्य ने सहमति जता दी और सभी आपस में भुनभुनाने-बतियाने लगे।
'...मैं तो कतई नहीं.. ' महंत जी ने स्प्ष्ट करना शुरू किया। सभी चुप होकर उन्हें ध्यान से सुनने लगे, '...मैं मूलत: एक साधारण अर्चक हूं ...मैं भला आप विद्वानों के बीच किसी विषय को लेकर क्या रार कर सका हूं... मैं एक सुझाव भर आपके बीच रखना चाहता हूं, वह भी पूरी विनम्रता के साथ... यह भी तभी जब आप सभी की मुझे सहमति-अनुमति मिले...' महंत जी ने अपनी मंशा व्यक्त की।
भीड़ में फिर सामूहिक बातें-बतकही और शोर शुरू। कुछ ही क्षणों के बाद उनमें से एक ने सबको शांत कराते हुए महंत जी को इंगित किया, '...हम जिज्ञासु हैं... जानना चाहते हैं कि आपका सुझाव क्या है... कृपाकर हमें आप बताएं अपनी बात...' इसके साथ ही सबने हाथ उठाकर 'हर हर महादेव' का उद्घोष किया।
महंत जी ने पुन: हाथ जोड़े, '..तुलसीदास कृत रामचरित मानस की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता के निर्णय का दायिव यदि हम बाबा विश्वनाथ को सौंप दें तो ?...'
एक साथ कई आंखें जैसे रत्नों की तरह चमक उठीं। अनेक स्वर चहक उठे, '...अद्भुत ...आपने तो अद्भुत सुझाव सामने रख दिया ...अनमोल हैं आपके विचार...'
तभी भीड़ से एक प्रतिरोधात्मक स्वर गूंज उठा, '...अपना पूरा तात्पर्य स्पष्ट करें ...बाबा विश्वनाथ से हमारा साक्षात्कार कहां होगा ? ...वह कहां और कैसे अवलोकन करेंगे, किस तरह निर्णय देंगे...'
महंत जी से पहले भीड़ से ही एक साथ कई लोगों ने जैसे उक्त प्रतिरोधी स्वर को दबोच लिया, '...बाबा विश्वनाथ तो प्रत्येक पल हमारे साथ हैं, उन्हें कहीं खोजने की आवश्यकता है भला ?...'
महंत जी ने पूरी प्रविधि स्पष्ट कर दी। शयन-आरती के बाद बाबा के समक्ष ग्रंथों की पूरी थाक सजा दी गई। 'रामचरित मानस' इसी के बीच डाल दी गई। अब सबको निर्णय की प्रतीक्षा थी।
सुबह मंदिर का पट खुला तो चमत्कार सबके सामने आ चुका था। 'रामचरित मानस' ग्रंथों की थाक पर सबसे ऊपर प्रतिष्ठित मिला और प्रथम पृष्ठ पर ही बाबा का अमूल्य हस्ताक्षर भी...। सभी भाव-विभोर...।
'कंकड़-कंकड़ शंकर' के रूप में विख्यात देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी ने पग-पग पर संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के चरण-चिह्न भी संजो रखे हैं। इन्हें आज भी देखा जा सकता है। जिज्ञासु और श्रद्धालु इनका अवलोकन-दर्शन कर विभोर होते रहते हैं।
कहा जाता है, संतशिरोमणि ने रामलीला के भिन्न-भिन्न प्रसंगों के लिए अलग-अलग स्थान नियत करते हुए शिव की इस समग्र नगरी को ही रामलीला के एकमेव मंच में परिवॢतत कर दिया। पूरी काशी आज भी रामलीला के एकमेव मंच के रूप में उपस्थित है। नक्कटैया की कुछ ही मिनटों की लीला चेतगंज में होती है जहां लाखों लोग जुटते हैं। 'भरत मिलाप' की लीला भी कुछ ही मिनटों की है जिसका स्थान नाटी इमली निर्धारित है, यह भी काशी के विख्यात लखिया मेलों में शामिल है। चारों भाइयों के केवल गले मिलने का दृश्य देखने लाखों लोग जुटते हैं। 'भोर की आरती' भी चंद मिनटों की ही दृश्य-प्रक्रिया है, जिसका स्थान रामनगर निर्धारित है। हर वर्ष यहां भी लाखों लोगों का जुटना तय होता है। चार लखिया मेलों में यह भी सम्मिलित है।
तुलसीघाट दुर्लभ स्थान है जहां वह ऐतिहासिक मंदिर है, जो गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन-प्रसंगों से जुड़ा हुआ है। संतशिरोमणि यहां पूजन-अर्चन किया करते थे। यहीं उनकी खड़ाऊं और नाव के अंश आज भी संरक्षित हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष देखकर भक्त निहाल हो उठते हैं।
गोपाल मंदिर परिसर स्थित वह कक्ष आज भी संदर्भोल्लेख की पट्टिका के साथ विद्यमान है जहां तुलसीदास जी ने 'विनय पत्रिका' की रचना की थी। यहां एक और कक्ष विद्यमान है जो महाकवि नंददास की स्मृति से जुड़ी है। यहां रहकर उन्होंने काव्य-साधना की थी। महाकवि नंददास पुष्टिमार्गीय अष्टछाप के कवियों में शामिल हैं। मान्यता है कि वह गोस्वामी तुलसीदास के चचेरे भाई थे। गोपाल मंदिर में दोनों कक्ष संरक्षित हैं।
गोस्वामी तुलसीदास के महानिर्वाण से संबंधित यह दोहा विख्यात है 'संवत सोलह सौ अस्सी असि गंग के तीर, श्रावण शुक्ला सप्तमि तुलसी तज्यो शरीर'। इससे स्वयं स्पष्ट है कि यह स्थान कितना अहम है।
तुलसीदास जी ने बनारस के विषाद को बनाया अमृत
तुलसी को बनारस में जो विषाद मिला उसे उन्होंने अमृत बना लिया। बनारस में रहते हुए ही उन्होंने रामचरित मानस को पूरा करने के साथ कवितावली व विनय पत्रिका जैसी महान कृतियां दीं जिसमें उस समय में बनारस में व्याप्त प्लेग की महामारी का असर दिखाई देता है। इन कृतियों में तुलसी के भय, अलगाव व अवसाद को देखा जा सकता है। वे मध्यकाल में बनारस में व्याप्त महामारी की मार्मिक अभिव्यक्ति थे। यह बात गोस्वामी तुलसीदास की 488वीं जयंती की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली की साहित्यिक संस्था ङ्क्षचतन द्वारा आयोजित एकल व्याख्यान में बीएचयू में ङ्क्षहदी विभाग के प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने कही। प्रो. शुक्ल ने कहा कि आज की कोरोना महामारी की भयावहता को उस समय की महामारी के चित्रण में देख सकते हैं जिसे तुलसी ने दर्ज किया है। तुलसी की कविता युग पीड़ा के साथ तत्कालीन मध्यकाल में संस्कृति को समझने भी मदद करती है। बता दें कि यह एकल व्याख्यान महामारी में तुलसीदास और बनारस विषय पर आयोजित था, जिसका संयोजन अंशु चौधरी ने किया।