गुलाल भरी एक मुट्ठी से रीझें चौसट्ठी देवी, 500 वर्ष की परंपरा का आज भी पूरी किया जाता है निर्वहन
500 वर्षों से भी अधिक पुरानी उस परंपरा से जिससे बंधे काशीवासी पीढिय़ों से होली उत्सव की धूलिवंदन तिथि अर्थात चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को रंग फाग के बाद देवी चौसट्ठी का दरबार जगाते है।
वाराणसी [कुमार अजय]। शास्त्रोक्त विधानों के मुताबिक हो या पौराणिक मान्यताओं की बिनाह पर, कारण रहा हो कोई क्षेपक या फिर शृंखला रही हो रस्म-रिवाजों की। काशी नगरी में सभी व्रत, पर्व, उत्सव, मेले व निजी पूजन-आराधन भी किसी न किसी देवी-देवता, यक्ष-गंधर्व, ग्राम देवों या कुल आराध्य के नाम समर्पित है। इसी क्रम में रंग पर्व फगुआ (होली) के सूत्र जुड़ते हैं भगवान शिव के जटाजूट के आघात से प्रकट चौंसठ योगिनियों के वंदन-अभिनंदन से जो स्वत: तंत्र स्वरूपा हैं जिनका आराधन समस्त तांत्रिक बाधाओं के शमन का सहज-सरल समाधान बताया गया है। यही मान्यता जाकर जुड़ती है 500 वर्षों से भी अधिक पुरानी उस परंपरा से जिससे बंधे काशीवासी पीढिय़ों से हर होली उत्सव की धूलिवंदन तिथि अर्थात चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को रंग फाग के बाद देवी चौसट्ठी का दरबार जगाते हैं दशाश्वमेध तीर्थ के सन्निकट उनके देवालय में जाकर श्रीचरणों को अबीर-गुलाल से पखार भय, बाधा से मुक्ति का वरदान पाते हैं।
एक पौराणिक गाथा के अनुसार काशी के महाप्रतापी राजा दिवोदास ने एक समय काशी पुराधिपति बाबा विश्वनाथ के आधिपत्य को चुनौती देते हुए न सिर्फ अपना वर्चस्व बनाया बल्कि नगरी के शिवतत्व को क्षीण करने का भी प्रयास किया। उसे अपदस्थ करने के लिए भगवान शिव ने कैलाश शिखर से पहले अष्ट भैरवों व छप्पन विनायकों को काशी भेजा जो बाद में यहीं स्थापित हो गए। इसी क्रम में चौंसठ योगिनियों ने भी काशी प्रवास किया व बाबा विश्वनाथ के दोबारा काशी पधारने के बाद उनकी कृपा से यहीं पूजित व प्रतिष्ठित हुईं।
15वीं शताब्दी में हुई प्राण प्रतिष्ठा
मंदिर के महंत पं. चुन्नी लाल पंड्या के अनुसार 15वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में बंगाल, चौबीस परगना के राजा प्रतापादित्य को स्वप्नादेश हुआ कि काशी में गंगाघाट के किनारे एक अश्वत्थ वृक्ष यानी पीपल के पेड़ में चौंसठ योगिनियां विराज रही हैं उन्हें माता भद्रकाली के सानिध्य में स्थापित कर सादर वंदन अभिनंदन प्रदान किया जाए। कथा बताती है कि प्रतापादित्य भद्रकाली की रजत प्रतिमा को नौका से लेकर काशी आए और केदार खंड क्षेत्र में भद्र काली के साथ सर्वसमाहित स्वरूप में चौंसठ योगिनियों को भी देवी दुर्गा की अष्टभुजा प्रतिमा के रूप में सिद्धपीठिका प्रदान की। पुराणों और काशी खंड में भी इन चौंसठ योगिनियों की महिला कथा बखानी गई है।
लोक मान्यताओं का आभा मंडल
अष्टधातु की प्रतिमा के रूप में काल भैरव व एकदंत विनायक के साथ भद्र काली के सम्मुख विराज रही देवी चौसट्ठी ने चूंकि चैत्र कृ ष्ण प्रतिपदा को ही अपनी पीठिका ग्रहण की थी अतएव लोक मान्यताओं ने धूलिवंदन की इस विशेष तिथि को देवी के अनुरंजन तिथि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
मूलत: तंत्र पीठ चौसट्ठी का आसन
सनातन परंपरा की बात करें तो काशी नगरी सभी मत-मतांतरों की साधना भूमि रही है। इसी क्रम में चौसट्ठी सिद्धपीठ को भी तंत्र पीठ की प्रतिष्ठा प्राप्त है। योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी, स्वामी भास्करानंद, देवरहवा बाबा व नारायण दत्त श्रीमाली जैसे हठी साधकों ने यहां सिद्धि प्राप्त की और अपने चमत्कारों से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया।
कभी घुटनों तक बिछ जाती थी गुलाल की कालीन
महंत पं. चुन्नीलाल पंड्या के अनुसार पंड्या परिवार की 11वीं पीढ़ी अभी देवी की सेवइती में समर्पित है। पुरखों-पुरनियों से सुनी गई सिद्धपीठ की महिमा कथाओं के मुताबिक अभी 18वीं सदी के उत्तराद्र्ध तक पीठ का वैभव परम ऐश्वर्यशाली हुआ करता था। न सिर्फ शहर से अपितु ग्राम्यांचलों से भी धूलिवंदन के लिए होली के दिन गाजे-बाजे के साथ श्रद्धालुओं के जत्थे चौसट्ठी यात्रा के लिए निकलते थे और देवी के दरबार में रौनकों के उत्सवी रंग भरते थे। लोकाचारी मान्यताओं के अनुसार चौसट्ठी देवी के चरणों में गुलाल चढ़ाए बगैर काशी में रंगोत्सव की पूर्णता ही नहीं मानी जाती है। ...तो आइये इस बार रंगोत्सव पर आप भी इस धरोहरी परंपरा को अपनी श्रद्धा से सजाइए। बंगाली टोला की गलियों या फिर चौसट्ठी घाट की पथरीली सीढिय़ों को अबीर-गुलाल से पाटते हुए चौसट्ठी मंदिर में देवी के श्री चरणों में एक मुट्ठी गुलाल अर्पित कर अक्षय पुण्य के भागीदार बन जाइए।
जो देखना चाहिए
- राजी दिवोदास के पराभव के लिए भगवान शिव के आदेश पर काशी प्रवास किया तंत्र रूपिणियों ने।
- चौसट्ठी घाट स्थित मंदिर में होली के दिन शाम को अबीर-गुलाल चढ़ाकर दर्शन-पूजन की है परंपरा।