इस बार दो से 17 सितंबर तक पितृ पक्ष, 17 अक्टूबर से शक्ति आराधना का पर्व शुरू
इस बार इसका आरंभ 17 अक्टूबर से हो रहा है जो 25 अक्टूबर तक चलेगा। खास यह कि इस बार नवरात्र आरंभ पितृ पक्ष समाप्ति के एक मास बाद हो रहा है।
वाराणसी, जेएनएन। शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा की पूजा-आराधना का महापर्व शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होकर नवमी तक चलता है। इस बार इसका आरंभ 17 अक्टूबर से हो रहा है जो 25 अक्टूबर तक चलेगा। खास यह कि इस बार नवरात्र आरंभ पितृ पक्ष समाप्ति के एक मास बाद हो रहा है। ऐसा आश्विन मास में अधिकमास के कारण हो रहा। इस तरह का योग 19 वर्ष बाद बन रहा है।
आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को समॢपत होता है। इसके विधान भाद्र शुक्ल पूॢणमा से शुरू होते हैं और अमावस्या (सर्वपैत्री अमावस्या या पितृ विसर्जन) पर पितरों को विधि विधान से उनके दाम के लिए विदा किया जाता है। इसके अगले दिन से ही आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को देवी का आवाहन व घट स्थापन कर नवरात्र पूजन किया जाता है। इस बार पितृ पक्ष दो सितंबर को शुरू हो रहा। इस दिन ही प्रतिपदा का श्राद्ध किया जाएगा। सर्व पैत्री अमावस्या (पितर विसर्जन) 17 सितंबर को होगी लेकिन दो पक्ष की बढत के कारण नवरात्र 17 अक्टूबर से शुरू होगा।
ख्यात ज्योतिषाचार्य पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार शुद्व आश्विन कृष्ण पक्ष तीन सितंबर से शुरू हो रहा और शुद्ध आश्विन पूॢणमा 31 अक्टूबर को पड़ रही है। इस बीच 18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक अधिकमास के दो पक्ष होंगे। शुद्व आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा 17 अक्टूबर को नवरात्र शुरू होगा जिसका समापन 25 अक्टूबर को नवमी व्रत -दर्शन के साथ होगा। इसी दिन विजय दशमी भी मनायी जाएगी। अधिकमास के कारण चातुर्मास्य भी इस बार पांच माह का हो रक्षा है।
यह है अधिकमास
जिस चंद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती उसे अधिकमास कहते हैं। अत: जिस राशि पर सूर्य का संचरण होता है, उसे उस राशि की संक्रांति कही जाती है। अधिकमास 32 माह 16 दिन चार घड़ी के अंतर पर आता है। ज्योतिष शास्त्र में अनुभव किया गया कि इस गणना में कहीं न कहीं कुछ सूक्ष्म अंतर रह जाता है। इसे पूरा करने के लिए क्षय मास की व्यवस्था की गई जो 140 वर्ष पीछे से 190 वर्ष के बीच एक बार आता है। जिस चंद्रमास के दोनों पक्षों में सूर्य संक्रांति होती है, क्षय मास कहा जाता है। क्षय मास केवल काॢतक, मार्गशीर्ष व पौष के किसी एक माह में होता है। जिस वर्ष क्षय मास होता है, उस एक वर्ष के भीतर दो अधिक मास होते हैं।
ज्ञान और विज्ञान
पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार सनातनी परंपरा में ज्योतिष शास्त्र अनुसार चंद्रगणना आधारित काल गणना पद्धति प्रमुख मानी जाती है। इस पद्धति में चंद्रमा की 16 कलाओं के आधार पर दो पक्ष (कृष्ण व शुक्ल) का एक मास माना जाता है। प्रथम पक्ष अमांत और दूसरा पूॢणमांत कहा जाता है। कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन से पूॢणमा की अवधि में साढ़े 29 दिन होते हैं। इस दृष्टि से गणना अनुसार एक वर्ष 354 दिन का होता है। वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में 365 दिन व छह घंटे का समय लगता है। सूर्य गणना व सनातनी परंपरा की चंद्र गणना पद्धति में हर साल 11 दिन तीन घड़ी व 48 पल का अंतर पड़ जाता है। यह अंतर तीन वर्ष में बढ़ते-बढ़ते लगभग एक साल का हो जाता है। अंतर दूर करने के लिए भारतीय ज्योतिष शास्त्र में तीन वर्ष में एक अधिकमास की परंपरा है। इस अधिकमास के तीन वर्ष में सूर्य गणना व चंद्रगणना की दोनों पद्धतियों की काल गणना लगभग समान हो जाती है।
स्नान-दान विधान
अधिकमास का अधिष्ठाता श्रीहरि को माना गया है। इस अवधि में श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए स्नान-दान व्रत का विशेष महत्व है। इस अवधि में माहपर्यंत काशी में गंगा या पंचगंगा घाट पर स्नान, व्रत और लक्ष्मीनारायण की सविधि पूजा का विधान है। मान्यता है कि समस्त विधानों के साथ अन्न, वस्त्र, स्वर्ण-रजत, ताम्र आभूषण समेत अन्य वस्तुओं के दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति और पापों का क्षय व अंत में विष्णु लोक प्राप्त होता है। पंचनद तीर्थ पर स्नान कर भगवान शिव का पूजन, बिल्व पत्र अर्पण और दान से अक्षय पुण्य, धर्म अर्थ काम मोक्ष प्राप्ति होती है।