बनारस में इन हवाओं ने मजहबी दूरियों से इंसानियत को 'महफूज' रखा है, आप भी महसूस कीजिए
देश में इन दिनों धार्मिक विवादों की विवादित बोली ने गोली चलने तक की नौबत ला दी है। ऐसे में बनारस की गलियों में घूमते टहलते आप थककर चूर हो जाएं तो कोई हाथ पंखे की हवा कर दे तो सुकून आपको अलहदा अहसास कराएगी।
वाराणसी [देवेन्द्र नाथ सिंह]। 'पंक्षी-नदियां और पवन के झोंके कोई सरहद न इन्हें रोके' गीत के बोल अमूमन गुनगुनाए तो सभी ने होंगे। मगर, इन दिनों हवाएं मजहबी फसाद की जो चलनी शुरू हुई हैं उनको थामकर इंसानियत के माथे पर छलछला आए पसीने को सुखाने की अगर जिद पाले कोई नजर आए तो अचरज सहज ही आपको महसूस होगा। बनारस भी ज्ञानवापी मसले में उलझा हुआ है तो यहां भी मजहबी चिंता के बीच इंसानियत की हवाओं ने उम्मीदों को राहत देने की चुनौती को 'पंखा बाबा' के टिटहरी प्रयत्न ने जीवंत रखने की मुहिम संभाल रखी है।
ज्ञानवापी मस्जिद से जुमे की नमाज पढ़कर शकील निकले तो दालमंडी में भीषण गर्मी में पस्त होकर चबूतरे पर बैठकर माथे पर छलक आए पसीने को पोछने लगे। आंख बंद कर गहरी सांस जब तक लेते तब तक न जाने कैसी राहत ही हवा आई और उनके माथे के पसीने को सुखाने लगी। आंख खुली तो सामने पंखा बाबा खड़े मुस्कुराते हुए उनको पंखा झलते नजर आए। जी हां, काशी की गलियों में आपके माथे का पसीना चबूतरे पर कोई सुखा सकता है तो वह पंखा बाबा यानी सोहन सिंह हैं। उनके हाथ में ताड़ के पत्तों से बना हाथ पंखा होता है जिसमें लिखा है - 'हवा लो'।
पंखा बाबा गेरुआ वस्त्र जरूर धारण करते हैं लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा धर्म मानव सेवा है। भीषण उमस और गर्मी में पसीने से तर-बतर लोगों को हाथों से पंखा झलते हुए ठंडी-ठंही हवा देते हैं। दालमंडी की गली में डेरा जमाए हर आने-जाने को शीतलता का एहसास कराते हैं। रास्ते से गुजर रहा किस मजहब का है इस पर कभी ध्यान नहीं देते हैं। ज्ञानवापी मस्जिद में नमाज के लिए जाने वाले और नमाज पढ़कर लौटने वाले ज्यादातर नमाजी उसी गली से गुजरते हैं जिसमें पंखा बाबा का डेरा होता है। पंखा बाबा उनकी सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
अब तो लोगों को पंखा बाबा की ऐसी आदत हो गई है कि आसपास के लोग रास्ते से गुजरते वक्त थोड़ी देर इनके पास बैठकर इनसे बतियाते हुए ठंडी हवा का आनंद लेने का मौका नहीं छोड़ते। पंखा बाबा का असली नाम सोहन सिंह हैं और वह शहर के हड़हासराय के निवासी हैं। लेकिन, अब वहां इनका कुछ नहीं बचा है। वह लोगों को माथे पर टीका लगाने के बदले मिलने वाले धन से अपना गुजर-बसर करते हैं। खुले आसमान के नीचे जहां भी 'अंधेरा हो सबेरा वहीं हो' का भाव लिए सो लेते हैं।