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Sharadiya Navratri : काश! ढाक के डंकों की तरह ही टनकदार होती जिंदगी, वाराणसी आए ढाक बजाने वालों का दर्द

काशी दुर्गोत्सव समिति शिवाला के पूजा पंडाल को ढाक की टंकार डंकों तथा नृत्य से सजाने के बाद जरा-सा दम मार रहे उत्तम सभी प्रश्नों का उत्तर बड़ी साफगोई से देते हैं। बंगाल की पूजा छोड़कर बनारस या और कहीं मेला जमाना उत्तम या उसके जैसे नौजवानों की मजबूरी है।

By pramod kumarEdited By: Saurabh ChakravartyPublished: Sun, 02 Oct 2022 08:57 PM (IST)Updated: Sun, 02 Oct 2022 08:57 PM (IST)
Sharadiya Navratri : काश! ढाक के डंकों की तरह ही टनकदार होती जिंदगी, वाराणसी आए ढाक बजाने वालों का दर्द
दुर्गा पूजा पंडाल में ढाक बजाते ढाकिए।

वाराणसी, कुमार अजय। पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के एक छोटे से गांव मेदिनी के मलिक टोले से अपने चार साथियों दिलीप, गौतम, बबलू के साथ बनारस में मेला जमाने और मां का सांचा दरबार सजाने कंधों पर ढाक लादे यहां तक आया है उत्तम मलिक। बिजली की गति से कौंधते डंकों के जादुई स्पर्श से ताल का मायाजाल रचने में महारत हासिल है उत्तम को।

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उसका दावा है कि डंकों के इन करिश्माई तालों से वह एक बार कोमा में चले गए शख्स के सुन्न पैरों में भी थिरकन पैदा कर सकता है। एक खास लय के साथ अर्ध गोलाकार घूमते-झूमते उत्तम का ढाक वादन सुनने के बाद उसके दावे के नकारने की स्थिति नहीं बनती, लेकिन ढाक के डंकों की तरह जिंदगी के छोटे-छोटे टुकड़ों के भी इसी तरह मदमस्त होने का दावा उत्तम नहीं कर सकता।

उत्तम की बनारस मेले में शिरकत महज उसका व्यक्तिगत मामला नहीं है। मेले में उसकी आमद से न केवल उसका अपना परिवार, बल्कि पूरे टोले की उम्मीदें जुड़ी हैं। बनारस से लौटी यह टोली जिल दिन मलिक के टोले के सीवान पर नजर आएगी, समूचा गांव अपने लाडलों के स्वागत को दौड़ पड़ेगा।

बाएं कंधे पर झूलते ढाक के समानांतर दाहिने कंधे पर लदा भारी-भरकम गट्ठर सिर्फ उत्तम की नहीं, पूरे गांव की अमानत है। गट्ठर है उन नए-पुराने कपड़ों का जो बख्शीश के तौर पर सहृदय लोगों से प्राप्त हुआ होगा। पूरे सालभर इन बख्शीश के कपड़ों से ही शरीर और सामाजिक मर्यादा की रक्षा होती है। बख्शीश में भी टोले की भागीदारी सुनिश्चित है। सट्टा-करार की रकम पर ही उत्तम और उसके साथियों का निजी अधिकार होगा।

काशी दुर्गोत्सव समिति (केडीएस) शिवाला के पूजा पंडाल को ढाक की टंकार, डंकों तथा नृत्य से सजाने के बाद जरा-सा दम मार रहे उत्तम सभी प्रश्नों का उत्तर बड़ी साफगोई से देते हैं। बंगाल की पूजा छोड़कर बनारस या और कहीं मेला जमाना उत्तम या उसके जैसे नौजवानों की मजबूरी है। अपने गांव में उनका वजूद 'घर का जोगी-जोगड़ा' से भी बदतर है।

देश से सामंतशाही भले ही समाप्त हो गई हो, उसके गांव मेदिनी में तो अब भी मंडल बाबू, घोष बाबू या दत्तो बाबू की ही चलती है। 'चोल रे ढाकिया, बाबू डाकचे...' के हुक्मनामे के बाद नकारात्मक कोई संज्ञा या सर्वनाम नहीं बचता। हुक्म की तामीली अनिवार्य है। वरना आज भी खाल खींची जा सकती है। यहां रहो तो पांच दिनों की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी मुश्किल से सवा सौ या डेढ़ सौ रुपये बचते हैं।

ऐसे में बनारस, धनबाद या पटना का मेला इन ढाकियों को बहुत रास आता है। सट्टे की एकमुश्त रकम (लगभग सात-आठ हजार रुपये) के साथ बख्शीश अलग से। पेट भर सुस्वादु भोजन और साल भर के लिए कपड़ों का बोनस अलग से। मेले से वापसी के बाद पूरे साल उम्मीदें अगले मेले के न्योते पर टिक जाती हैं। बाकी के 11 महीने खेतों-खलिहानों में मजदूरी करते गुजरते हैं। दुर्गा पूजा औरों के लिए भले ही उत्सव हो, उत्तम के लिए तो यह महा उत्सव है। उसके परिवार और टोले दोनों के वर्षभर के योग-क्षेम का प्रतीक।

बच्चों को ढाक जरूर सिखाएंगे

उत्तम को ढाक वादन कला विरासत में मिली है। उसके बाबा ढाक के साथ तबले के भी जादूगर थे। ''''जात्रा'''' में बहुत दिनों तक काम किया। नाम तो मिला, मगर दाम नहीं मिला। रकम के अभाव में इलाज नहीं हो सका और दम निकल गया। उत्तम अपने बाल-बच्चों को पढ़ा-लिखाकर 'बाबू मोशाय' तो बनाना चाहता है, किंतु वह उन्हें ढाक भी सिखा रहा है ताकि अविरल परंपरा खंडित न हो।


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