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वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग को मिला आचार्य रामचंद्र शुक्ल से मार्गदर्शक सूत्र, राष्ट्रभाषा को दिया मानक रूप

हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हिंदी भाषा के इतिहासकार प्रखर आलाेचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मिलना हिंदी का सौभाग्य था। इस बारे में आचार्य शुक्ल का कहना था कि हिंदी को उसकी बोलियों तथा उसके शब्दों से ही प्रयुक्त किया जाय।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Mon, 04 Oct 2021 09:10 AM (IST)Updated: Mon, 04 Oct 2021 05:21 PM (IST)
हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ, हिंदी भाषा के इतिहासकार, प्रखर आलाेचक, आचार्य रामचंद्र शुक्ल था।

जागरण संवाददाता, वाराणसी। हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ, हिंदी भाषा के इतिहासकार, प्रखर आलाेचक, आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जन्म- 04 अक्टूबर-1884 शरद पूर्णिमा (अगोना, बस्ती), निधन- 02 फरवरी, 1941, वसंत पंचमी (वाराणसी)का मिलना हिंदी का सौभाग्य था। हिंदी शब्दकोष ‘शब्दसागर’ तथा हिंदी में आलोचना की अनुपम पृष्ठभृमि तैयार कर आचार्य ने साहित्य को जो अनुपम भेंट दी उसने भारतेंदु के बाद हिंदी को एक समृद्ध तथा सर्वगुण संपन्न भाषा के रूप में विश्व अकादमिक पटल पर स्थापित कर दिया। आचार्य शुक्ल का कहना था कि हिंदी को उसकी बोलियों तथा उसके शब्दों से ही प्रयुक्त किया जाय। जब भाषा प्रयोग में हिंदी या संस्कृत के शब्द न मिलें तो अन्य किसी भारतीय भाषा का शब्द प्रयोग हो, अनावश्यक विदेशी भाषाओं के ठूंसने के विरोधी थे। उनके इस कथन को वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग ने मार्गदर्शक सूत्र के रूप में ग्रहण किया।

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बस्ती में जन्म, मीरजापुर में बचपन व काशी में जीवन

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना गांव में 04 अक्टूबर 1884 को हुआ था। उनके पिता चंद्रबली शुक्ला सरकारी नौकरी के क्रम में वाराणसी के पड़ोसी जनपद मीरजापुर आ गए तो उनका पूरा जीवन वहीं बीता। मीरजापुर में ही रामचंद्र को साहित्यिक परिवेश मिला तो झुकाव उधर ही होता चला गया। पिता की इच्छा के विरुद्ध सरकारी नौकरी न कर उन्होंने साहित्य सेवा व अध्यापन चुना। किशोरावस्था से ही उनके लेख और कविताओं ने उनकी यश-सुगंधि बिखेरना शुरू कर दिया था। कुछ दिन कोलकाता में अध्यापन कर वे फिर मीरजापुर लौट आए। उनकी भाषा सेवा व विद्वत्ता को देखते नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें 1908 में हिंदी शब्दसागर के सहायक संपादक की जिम्मेदारी सौंपी। बाद में वह प्रचारिणी के संपादक भी बने। महामना मालवीय 1919 में उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय लाए और बिना पीएचडी के ही हिंदी के प्राध्यापक बना दिया। 1937 में बाबू श्यासुंदर दास के निधन के बाद विभागाध्यक्ष बने तो आजीवन 1941 तक बने रहे। उनकी हिंदी सेवा बीएचयू में आने के बाद और परवान चढ़ी।

आचार्य को लाने के लिए महामना को बनना पड़ा याचक

कई बुलावे के बाद भी आचार्य शुक्ल जब नागरी प्रचारिणी सभा छोड़कर आने को तैयार नहीं हुए तो महामना मदन मोहन मालवीय उनके आवास पर जा पहुंचे। प्रपौत्री डॉ. मुक्ता की लिखी जीवनी के अनुसार पंडित मालवीय ने आचार्य की धर्मपत्नी सावित्री देवी से कहा कि ‘शुक्लाइन जी, मैं याचक हूं। अब तक लक्ष्मी की भिक्षा मांगकर विश्वविद्यालय बनाया, अब उसे चलाने के लिए सरस्वती की भीख मांगने आया हूं’।

बीएचयू में पहुंच हिंदी को दिलाया वैश्विक मान

बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर अवधेश प्रधान कहते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मीरजापुर में साहित्य का अर्जन किया, नागरी प्रचारिणी सभा में उसे विस्तार दिया तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पहुंच उसे वैश्विक स्तर एक समृद्ध भाषा और साहित्य के रूप में मान दिलाया। शुक्ल जी के आने के बाद बीएचयू हिंदी विभाग हिंदी आलोचना के गुरुकुल के रूप में स्थापित हुआ। फिर तो हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर नामवर सिंह तक आलोचकाें की एक सुदीर्घ परंपरा का विकास हुआ। उन दिनों हिंदी शासन स्तर पर महज अंग्रेजों की सहायक भाषा की भूमिका में थी। उसे मजदूरों, गुलामों की भाषा से उठाकर आचार्य शुक्ल ने समृद्ध अकादमिक रूप दिया। उसका इतिहास लिखा, उच्च शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम और पाठ्यवस्तु तैयार की। फिर तो हिंदी की सुगंध लोगों को आकर्षित करने लगी।

नहीं भाया अलवर, तीन दिन में ही लौटे

अलवर के राजा के आग्रह और पारिवारिक आर्थिक आवश्यकताओं को देख वह मालवीय जी के मना करने पर भी 1924 में अलवर चले गए। वहां राजा ने आधी रात को जगाकर उनसे खेहर शब्द का अर्थ पूछा, बता तो दिया किंतु सुबह होते ही बोरिया बिस्तर बांध तीन दिन में ही लौट आए। राजा ने अपने सचिव को पुन: बुलाने के लिए काशी भेजा तो उसे उन्होंने पत्र देकर वापस भेज दिया। पत्र में लिखा ‘चिथड़े लपेटे चने चाबेंगे द्वार पर, चाकरी करेंगे नहीं चौपट चंडाल की।’ सन 1941 में 02 फरवरी को बसंत पंचमी के दिन हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया।


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