अवध में भरत का हुआ आगमन तो उनकी दशा देख कर श्रद्धालुओं के छलक पड़े आंसू
बारहवें दिन ग्यारहवे लीला के अन्तर्गत अवध में भरत का आगमन, गंगावतरण व श्रीभरत का चित्रकूट प्रयाग, निषाद मिलन व भारद्वाज आश्रम में निवास की लीला मंचित की गई।
वाराणसी (रामनगर) । रामनगर की रामलीला के बारहवें दिन ग्यारहवे लीला के अन्तर्गत गुरुवार की रात अवध में भरत का आगमन, गंगावतरण व श्रीभरत का चित्रकूट प्रयाग, निषाद मिलन व भारद्वाज आश्रम में निवास की लीला मंचित की गई। गुरुवार को लीला का शुरूआत भरत का नैनिहाल से लौटने की जानकारी मिलते ही कैकेयी उनके स्वागत की तैयारी में जुट जाती है। महल पहुंचने पर उनका स्वागत करती है। ननिहाल का कुशलक्षेम बताने के बाद भरत पिता दशरथ व बड़े भाई राम, सीता व लक्ष्मण के बारे मे पूछते है। कैकेयी द्वारा वरदान मांगे जाने व राम के वियोग में दशरथ द्वारा प्राण त्यागने का समाचार सुन भरत माता को कोसती हुए कहते हैं कि हे पापिनी तूने सभी प्रकार से कुल का विनाश किया। अगर तुम्हें ऐसा करना ही था तो मुझे जन्म देते ही क्यों नहीं मार डाला।
महाराज दशरथ के निधन व श्रीराम व सीता तथा लक्ष्मण समेत वन गमन का सूचना मिलने पर भरत विलाप करते हैं। भरत का द्रवित दशा देखकर लीला प्रेमियों के आंखों से आंसू बहने लगते है। वहीं दूसरी तरफ माता की कुटिलता सुन कर शत्रुघ्न के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय मंथरा (कुबड़ी) भांति-भांति कपड़े, गहनों से सजधज कर वहां आती है। उसे सजा देख शत्रुघ्न का क्रोध और भी अधिक बढ़ गया मानो जलती हुई घी के अग्नि मिल गया हो। उन्होने जोर से कूब पर एक लात जमा दी वह चिल्लाते हुए मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी। तब दया निधि भरत ने उसे छुड़वा दिया तथा दोनों भाई तुरंत कौशल्या के पास गए और व्याकुल होकर कौशल्या के गोद मे बैठकर रोने लगते है।
इसके बाद मुनि वशिष्ठ मंत्री सुमंत व अन्य लोगों को बुलाकर राजा दशरथ के श्राद्ध का सामान तैयार करने का आदेश देते है (लेकिन इसका मंचन नहीं होता है)। गुरु वशिष्ठ भरत को गद्दी स्वीकार करने व श्रीराम के वापस आने पर उन्हें वापस कर सेवा करने के लिए कहते हैं लेकिन भरत राम को मनाकर वन से वापस लाने की निर्णय लेते है। अवधपुरवासी भरत की वाणी सुनकर उनकी जय जयकार करते है। भरत काज तिलक का समान वन में ले चलने का आज्ञा देते है। गुरु वशिष्ठ व अन्य लोगों को साथ लेकर वन की ओर चल पड़े हैं।
तमसा नदी के किनारे विश्राम करता देख निषाद राज भरत के समीप पहुंच कर अपना परिचय देकर प्रणाम करते है। वशिष्ठ द्वारा निषाद राज को श्रीराम का मित्र बताए जाने पर उन्हें गले लगा लेते हैं। इसके प्रयाग पहुंच कर भरत त्रिवेणी में स्नान करने के उपरान्त ब्राह्मणों के दान देते है। यहां से भरत भारद्वाज ऋ षी के आश्रम में जाकर प्रणाम करते है। इस पर मुनि उन्हें राम की अनन्य भक्ति का वरदान देते है। भरत कहते है कि मैं सिर्फ सोचता हूं कि श्री राम, जानकी व लक्ष्मण नंगे पांव मिथिलेश धारण किए वन मे भटक रहे हैं। मृग च्रम पहन कर, कंद मूल, फल खाकर कुशापात विछावन पर से रहे हैं। यह दुख मेरे हृदय से मिट नहीं पायेगा। भारद्वाज ऋषि रिद्धि-सिद्धि को आज्ञा देते हैं कि श्रीराम के विरह में भाई व समाज सहित भरत व्याकुल है। इसके बाद आरती करने के बाद लीला को विराम दिया गया।