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शोध-अनुसंधान : अंडमान निकोबार द्वीप समूह में फैला कोरोना तो नहीं बचेंगी संरक्षित जनजातियां

खतरा काशी हिंदू विश्वविद्यालय व सीसीएमबी हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा जातीय समूहों में रोग प्रतिरोधक क्षमता पर जीन-विश्लेषण संबंधी एक संयुक्त अध्ययन में सामने आया है। यह शोध बुधवार को जीन्स एंड इम्युनिटी विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Thu, 14 Oct 2021 05:00 AM (IST)Updated: Thu, 14 Oct 2021 05:00 AM (IST)
शोध-अनुसंधान : अंडमान निकोबार द्वीप समूह में फैला कोरोना तो नहीं बचेंगी संरक्षित जनजातियां
शोध बुधवार को जीन्स एंड इम्युनिटी विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

वाराणसी, जागरण संवाददाता। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में निवास करने वाली जनजातियों बीच अगर कोरोना वायरस का संक्रमण फैला तो हजारों वर्ष पुरानी जरावा व ओंगे जनजातियों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। उनमें पाया जाने वाला एक खास किस्म का जीन समूह ही उनके अस्तित्व विनाश का कारण बनेगा। यह खतरा काशी हिंदू विश्वविद्यालय व सीसीएमबी हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा जातीय समूहों में रोग प्रतिरोधक क्षमता पर जीन-विश्लेषण संबंधी एक संयुक्त अध्ययन में सामने आया है। यह शोध बुधवार को जीन्स एंड इम्युनिटी विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

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जारवा व ओंगे पर है सबसे ज्यादा, खतरा : सीएसआइआर सीसीएमबी हैदराबाद के डा. कुमारसामी थंगराज और बीएचयू के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे के सह-नेतृत्व में देश भर के 13 संस्थानों के 11 वैज्ञानिकों ने भारतीय आबादी के विभिन्न जातीय व जनजातीय समूहों का जीनोमिक विश्लेषण किया। टीम ने 227 समुदायों के 1600 से ज्यादा व्यक्तियों के उच्च रेसोलुशन वाले जीनोमिक डेटा में उस डीएनए की जांच की जो कोविड-19 जोखिम को बढ़ा देता है। पाया कि कुछ समुदायों के जीनोम में समान प्रकार के डीएनए सेगमेंट (समयुग्मजी) पाए जा रहे हैं जो उनको कोविड-19 के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। शोधकर्ताओं की टीम ने एसीई-2 जीन का अध्ययन करते हुए कोविड-19 के जोखिम का भी आकलन किया, और पाया कि यह म्युटेशन जारवा और ओंगे में सबसे ज्यादा पाया गया। जो उनके लिए कोविड-19 के खतरे को बढ़ा देता है। यानी अगर इन जनजातियों में कोरोना फैला तो उन्हें बचा पाना मुश्किल होगा।

कौन हैं जरावा व कोंगे : जरावा जनजाति अंडमान व निकोबाद द्वीप समूह में एक द्वीप निवास पर करने वाली 55000 वर्ष पुरानी एक ऐसी जनजाति है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह लोग लगभग 30 हजार वर्षों से किसी दूसरे समूह के संपर्क में नहीं आए हैं। आज भी पूरी दुनिया से कटी यह जनजाति घने जंगल में नंग-धड़ंग रहती है और तीर-धनुष से शिकार कर अपना भोजन प्राप्त करती है। इनकी संख्या लगभग 450 है। सरकार ने इन्हें संरक्षित घोषित किया है और उनके इलाकों में जाने की किसी को अनुमति नहीं है। ओंगे जनजाति भी इसी प्रकार संरक्षित समूह है।

क्यों पड़ी अध्ययन की आवश्यकता : बीएचयू के मालीक्यूलर एंथ्रोपोलाजी के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे बताते हैं कि कोविड-19 के समुदायवार प्रभाव की अभी तक कोई पुख्ता जानकारी नहीं थी। इस तरीके के पहले शोध में हमारी टीम ने जेनोमिक डाटा का इस्तेमाल करते हुए समुदायवार कोविड-19 के जोखिम स्तर का पता लगाया है। हुआ यह कि ब्राजील में इस महामारी से वहां के आदिवासी समूह बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए। दोगुनी मृत्यु दर के चलते कई समूह विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए। तब भारत में ऐसे अध्ययन की जरूरत महसूस हुई।

क्या हैं बचाने के उपाय : विज्ञान संस्थान बीएचयू के निदेशक प्रो. अनिल के त्रिपाठी कहते हैं कि हमें आइसोलेटेड आबादी के लिए उच्च प्राथमिकता वाली सुरक्षा और अत्यधिक देखभाल की आवश्यकता है, ताकि हम आधुनिक मानव विकास के कुछ जीवित किंवदंतियों को न खोएं।

शोध टीम में शामिल वैज्ञानिक : बीएचयू से प्रज्वल प्रताप सिंह, प्रो वीएन मिश्र, प्रो. रोयना सिंह और डा. अभिषेक पाठक, अमृता विश्वविद्यालय केरल से डा. प्रशांत सुरवझाला, सीएसआइआर-सीसीएमबी हैदराबाद से प्रत्यूसा मच्चा, कलकत्ता विश्वविद्यालय से डा. राकेश तमांग, सऊदी अरब से डा. आशुतोष राय, एफएसएल मध्य प्रदेश से डा. पंकज श्रीवास्तव और अलबामा विश्वविद्यालय अमेरिका से प्रोफेसर केशव के सिंह।


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