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Pro.Yadunath sarakaar Death Anniversary जब अंग्रेजी के शिक्षक प्रो. यदुनाथ बीएचयू आकर बने विश्वविख्यात इतिहासकार

Pro.Yadunath sarakaar Death Anniversary मालवीय जी के बुलावे पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर बन गए थे।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Fri, 15 May 2020 05:23 PM (IST)Updated: Fri, 15 May 2020 05:23 PM (IST)
Pro.Yadunath sarakaar Death Anniversary जब अंग्रेजी के शिक्षक प्रो. यदुनाथ बीएचयू आकर बने विश्वविख्यात इतिहासकार
Pro.Yadunath sarakaar Death Anniversary जब अंग्रेजी के शिक्षक प्रो. यदुनाथ बीएचयू आकर बने विश्वविख्यात इतिहासकार

वाराणसी [हिमांशु अस्थाना] । Pro.Yadunath sarakaar Death Anniversary (जन्म : 10 दिसंबर 1870, मृत्यु : 15 मई 1958 (कहींं-कहीं पुण्यतिथि 19 मई भी बताई जाती है) जिस दौर में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की जड़ें अंग्रेजी के बल पर दुनिया भर में मजबूत हो रही थी, उस दौर में अंग्रेजी के एक विद्वान मालवीय जी के बुलावे पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर बन गए थे।

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अंग्रेजी से एमए करने के बाद इतिहासकार का सफर तय करने वाले प्रो. यदुनाथ सरकार ने बीएचयू के शुभारंभ के बाद 1917 में इतिहास विभाग के पहले प्रमुख की कमान संभाली थी। इसके साथ ही उन्हेंं बीएचयू के लाइब्रेरी की भी जिम्मेदारी सौंप दी गई। हालांकि उन्होंने अपना स्नातक इतिहास और अंग्रेजी दोनों में किया था। बीएचयू स्थित सेंट्रल लाइब्रेरी के उप ग्रंथालयी डा. संजीव सराफ के मुताबिक बीएचयू के केंद्रीय ग्रन्थालय को दुनिया के विशाल और समृद्ध लाइब्रेरी में शुमार करने का श्रेय सर यदुनाथ की दूरदृष्टि और योजनाओं को ही जाता है। वह संभवत: उस दौर के देश में पहले ऑनरेरी पूर्णकालिक लाइब्रेरियन भी थे। डा. सराफ के मुताबिक भारत में लाइब्रेरी साइंस के जनक एस आर रंगनाथन भी 1924 में मद्रास विश्वविद्यालय के पहले लाइब्रेरियन बने थे। खास बात यह है कि सर यदुनाथ के बीएचयू में सेवा देने के लगभग 28 साल बाद रंगनाथन 1945 में बीएचयू के लाइब्रेरियन बने।

बनारस के विद्वानों ने की थी दारा शिकोह की मदद

सर यदुनाथ अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब में लिखते हैं कि दारा शिकोह की हिंदू धर्म, वेद, उपनिषदों और दर्शन में रूचि बढ़ रही थी। बनारस उस दौर में हिंदू विद्या धर्म का सबसे बड़ा केंद्र था। दारा ने तत्काल बनारस के विद्वानों की सहायता से उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया। बनारस के संतो द्वारा प्राप्त ज्ञान से वह समझ चुका था कि सूफी और हिंदू मत में महज शब्दों का अंतर है। इसी के बाद उसने मजमुआ उल बहरीन किताब लिखी, जिसका उद्देश्य था कि दोनों धाराओं को मिला दिया जाए।


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