कहारों के कंधे पर सिमट गया 'डोली' का दायरा
सिकंदरपुर (बलिया) में सभ्यता के विकास के साथ नई-नई वस्तुएं व नए-नए साधन अस्तित्व में जैसे आए वैसे ही पालकी उठाने वाले बेरोजगार हो गए।
सिकंदरपुर (बलिया) : सभ्यता के विकास के साथ नई-नई वस्तुएं व नए-नए साधन अस्तित्व में आते हैं। पुराने दम तोड़ जाते हैं। रह जाती हैं उनकी यादें स्मृतियों में, गीतों में, मुहावरों व कहावतों में। कभी अमीरों, रईसों, जमींदारों व दूल्हे राजा की सवारी रही डोली के साथ भी यही हुआ है। अतीत में गांव साधनविहीन थे। शहर भी गलियों के थे व आवागमन के साधन भी नहीं थे। ऐसे में उस समय डोली आवागमन का सर्वसुलभ व सर्व प्रयुक्त साधन था। गांव की पगडंडियों व शहर की गलियों में सभी के लिए डोली ही सबसे आरामदायक सवारी थी।
समय बदला, गांव की पगडंडियां पक्के सम्पर्क मार्ग बन गए। राजपथ पक्के व चौड़े हो गए। साइकिल से अधिक बाइक, कार व जीप हो गए। भाग दौड़ की ¨जदगी में इंसान के पास समय की कमी होती गई। तीव्र गति वाहनों की मांग बढ़ती गई। कछुए की चाल चलने वाली डोली इस स्पर्धा में टिक नहीं पाई। केवल त्यागी ही नहीं बल्कि बिसरा दी गई। हां डोली आज भी कहीं ¨जदा है तो गीत, संगीत व साहित्य में। लोक व फिल्मी गीतों में आज भी डोली का विशेष सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि डोली भारतीय सभ्यता का एक ऐसा अपरिहार्य साधन थी जिसके बिना सम्पन्न लोगों के साथ ग्रामीण जीवन की कल्पना बेमानी थी। शादी के मौके पर दुल्हन की विदाई के लिए आकर्षक ढंग से सज कर तैयार डोली देखने वालों का मन मोह लेती थी। वैसे भारतीय सभ्यता के इस धरोहर को पुनर्जीवित करना आवश्यक है। जिससे कि न केवल हमारी नई पीढ़ी रूबरू हो बल्कि संस्कृति जीवंत हो सके। आज कैसे उम्मीद की जाए कि डोली को हम पुन: अपनाएंगे। कारण कि यह श्रमसाध्य जो है ¨कतु क्या गत जीवन को हम एकदम विलुप्त हो जाने दें, यह अच्छा नहीं होगा। इसे पुनर्जीवित करने के लिए शादी के कम से कम किसी एक मौके पर तो कुछ समय के लिए इसका उपयोग किया ही जा सकता है। डब्बानुमा लकड़ी का साधन है डोली
डोली मनुष्य को ढोने वाला डब्बानुमा लकड़ी का साधन है जिसे चार कहार (मजदूर) अपने कंधों पर ढोते हैं। अतीत में गांव की पगडंडियों पर ढोने का यह सबसे उपयुक्त साधन था। शादी के मौके पर इसी डोली से दूल्हा राजा ससुराल जाते थे। विवाह के बाद उसी डोली से दुल्हन पीहर से ससुराल आती थी।