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काशी में मौजूद हैं स्‍वामी विवेकानंद की जड़ें, यहीं से शिकागो जाने का लिया था निर्णय

स्वामी विवेकानंद ने देश दुनिया में भारत का मान बढ़ाया और अध्यात्म के जरिए शांति का पाठ पढ़ाया।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Fri, 10 Jan 2020 04:51 PM (IST)Updated: Fri, 10 Jan 2020 11:37 PM (IST)
काशी में मौजूद हैं स्‍वामी विवेकानंद की जड़ें, यहीं से शिकागो जाने का लिया था निर्णय

वाराणसी, जेएनएन। स्वामी विवेकानंद ने देश दुनिया में भारत का मान बढ़ाया और अध्यात्म के जरिए शांति का पाठ पढ़ाया। उनका काशी आना कई बार हुआ लेकिन कम ही लोग जानते हैैं कि उनका जन्म भी काशी में विराजमान आत्म विश्वेश्वर महादेव के आशीर्वाद से हुआ। संतान न होने से चिंतित विश्वनाथ दत्त व भुवनेश्वरी देवी देवाधिदेव महादेव की चरण-शरण में काशी आए।

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कहा जाता है कि भुवनेश्वरी देवी ने एक रात स्वप्न में भोले शंकर को ध्यान करते देखा। उस दौरान वह संतान को लेकर बहुत परेशान थीं। उन्होंने स्वप्न की बात काशी में रहने वाली अपनी महिला रिश्तेदार से बताई। बाकायदा इस बात का जिक्र स्वामी निखिलानंद ने पुस्तक में किया है। विवेकानंद की मां भुवनेश्वरी देवी, पिता विश्वनाथ दत्त काशी आए और आत्म विश्वेश्वर महादेव मंदिर में पूजा-अर्चना की, मन्नत मांगी। बताते हैं कि जब कुछ दिनों बाद यहां से कोलकाता वापस गए तो विवेकानंद, मां की गर्भ में थे। 12 जनवरी, 1863 को उनका जन्म हुआ और मां ने उनका बचपन का नाम वीरेश्वर रखा। बाद में जब स्कूल में गए तो नरेंद्रनाथ नाम रखा गया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सानिध्य में आने पर स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए। संकठा मंदिर के पीछे स्थित कात्यायनी मंदिर के गर्भगृह में आत्म विश्वेश्वर महादेव विराजमान हैैं जिसकी दीवारों पर स्वामी विवेकानंद के माता-पिता भुवनेश्वरी देवी व विश्वनाथ दत्त की भी तस्वीर लगी हैैं।

प्रथम आगमन 24 वर्ष की आयु  में

स्वामी विवेकानंद 24 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1887 में पहली बार काशी आए और गोलघर स्थित दामोदर दास की धर्मशाला में ठहरे। सिंधिया घाट पर गंगा स्नान के दौरान बाबू प्रमदा दास मित्रा से मुलाकात हुआ। बगैर शब्दों के दोनों के बीच संवाद हुआ। प्रमदा दास स्वामीजी को अपने घर ले आए। इसके बाद स्वामीजी का काशी आने का सिलसिला जारी हुआ और पांच बार यहां आए।

बनारस में ही शिकागो जाने का निर्णय

स्वामी विवेकानंद ने काशी भ्रमण के दौरान ही शिकागो जाने का निर्णय लिया था। उन्होंने वर्ष 1889 में प्रतिज्ञा की थी कि शरीर वा पातयामि, मंत्र वा साधयामि यानी आदर्श की उपलब्धि करूंगा, नहीं तो देह का ही नाश कर दूंगा।

अंतिम बार गोपाल लाल विला प्रवास

स्वामी विवेकानंद अंतिम बार काशी प्रवास में गोपाल लाल विला (अब एलटी कालेज परिसर) में ठहरे। वर्ष 1902 में जब ने बनारस आए तो बीमार थे। यहीं ठहरे व एक माह तक स्वास्थ्य लाभ किया। सिस्टर निवेदिता, स्वामी ब्रह्मïनंद व वुली बुल को चार मार्च 1902 को पत्र में उन्होंने लिखा कि मुझे सांस में अभी भी काफी तकलीफ है। यहां आम, अमरूद के बड़े-बड़े पेड़ हैं, गुलाब का खूबसूरत बगीचा है और तालाब में सुंदर कमल खिले रहते हैं। ये जगह मेरे स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। यहां से कुछ मील दूर बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ भी है। (पत्रावली नामक किताब में प्रकाशित तथ्य)। कुछ दिन बाद स्वास्थ्य खराब होने के कारण स्वामीजी वेलूर मठ चल गए। चार जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानंद महासमाधि में लीन हो गए। उन्होंने 39 वर्ष पांच माह, 24 दिन की अल्प आयु में शरीर त्यागा।

गोपाल लाल विला खंडहर में तब्दील

एलटी कालेज परिसर स्थित गोपाल लाल विला पूरी तरह खंडहर में तब्दील है। दो मंजिला यह भवन अवशेष रूप में खड़ा है। इस परिसर में शिक्षा विभाग के कई दफ्तर हैं। इसे धरोहर रूप देने के लिए लंबे समय से मांग की जा रही है।

राहत देने वाले आप कौन होते हैैं

स्वामी विवेकानंद से ही प्रेरणा लेकर तीन युवाओं केदारनाथ, जामिनी रंजन और चारुचंद्र दास ने रामापुरा में दो कमरे के मकान में असहायों की चिकित्सा सेवा शुरू की। स्वामी जी 1902 में जब काशी आए तो लोगों ने उन्हें यह जानकारी दी। वे बेहद खुश हुए और उनसे मिलने पहुंच गए। अस्पताल का नाम 'पुअर मेंस रिलीफ एसोसिएशन देखा तो गंभीर हो गए। सवाल किया -'आप राहत देने वाले कौन होते हैं और 'होम ऑफ सर्विस नाम दिया। यह अस्पताल बाद में रामकृष्ण मिशन से जुड़ा। देश भर में रामकृष्ण मिशन हैैं लेकिन काशी में 'राम कृष्ण मिशन होम ऑफ सर्विस है। वर्ष 1902 में ही राजा उदय प्रताप सिंह ने उनसे मिलने की इच्छा जताई तो इस मुलाकात में वेदांत पर चर्चा भी हुई। राजा ने स्वामी विवेकानंद को वेदांत प्रचार के लिए 500 रुपये दान में दिए। इससे लक्सा स्थित अस्पताल परिसर में रामकृष्ण अद्वैत आश्रम बनाया गया।

रुको, सामना करो

एक बार काशी प्रवास में स्वामी विवेकानंद दुर्गाकुंड के जंगलों से जा रहे थे। इस बीच बंदर उनका पीछा करने लगे। वे भागे लेकिन 'रुको, सामना करो के शब्द कान में पड़ते ही ठिठक गए। ऐसा करते ही बंदर भागे। इससे उन्होंने चुनौतियों से भागने के बजाय सामना करना सीखा और दुनिया को इसका संदेश दिया।


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