प्रवासी दिवस : छोड़ शाही आन-बान, नीलेश ने बनाया अपना मुकाम
प्रवासी भारतीय दिवस पर बनारस आ रहे नीलेश ने कड़ी मेहनत के बल पर अपना मुकाम हासिल किया। कुशीनगर स्थित तम्कुही स्टेट से ताल्लुक रखने वाले नीलेश ने प्रारंभिक शिक्षा रथयात्रा स्थित बीटीएस से हासिल की।
वाराणसी, [मुहम्मद रईस]।शाही आन-बान को ठोकर मार, अपने दम पर पहचान बनाने वाले विरले ही मिलते हैं। इसके लिए जहां मजबूत इरादों की दरकार होती है, वहीं विषम परिस्थितियों में हार न मानने का जज्बा भी जरूरी है। कुछ इसी तरह के जज्बात और जज्बे संग काशी की पावन धरती से अमेरिकी सरजमीं तक का सफर तय किया नीलेश शाही ने। कुशीनगर स्थित तम्कुही स्टेट से ताल्लुक रखने वाले नीलेश ने प्रारंभिक शिक्षा रथयात्रा स्थित बीटीएस से हासिल की। इसके बाद इंटर की परीक्षा डीरेका स्थित सेंट जॉन्स से उत्तीर्ण की। वहीं 1986 में बीएचयू से वाणिज्य विषय से स्नातक पूरा किया। प्रबंधन में विशेष रूचि थी, लिहाजा कनाडा पहुंचे और 1986 में सेंट मेरीज विवि में एमबीए पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। वहीं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका पहुंचे। यहां सदन इलिनॉय विवि से 1991 में इन्फार्मेशन सिस्टम में मास्टर डिग्री हासिल की। आइटी व मैनेजमेंट कंसल्टिंग के क्षेत्र में नाम कमा रहे नीलेश फिलहाल प्रवासी भारतीय दिवस में प्रतिभाग करने को बनारस पहुंच चुके हैं। यहां श्रद्धा सिन्हा के बिरदोपुर स्थित आवास पर काशी की परंपरानुसार उनकी खूब खातिरदारी हो रही हैं। फिलहाल वे यहां के गलियों-घाटों पर घूमने, खरीदारी करने के साथ ही पुराने परिचितों से मिलने में व्यस्त हैं।
आसान नहीं था सफर, हौसलों से असान हुई डगर
अमेरिका में ही वर्ष 1991 में नीलेश ने आइटी व मैनेजमेंट कंसल्टिंग के क्षेत्र में कदम रखा। नीलेश बताते हैं कि, 'मैं अनावश्यक खर्च नहीं करना चाहता था। इसलिए सीमित पूंजी में अमेरिका रहकर पढ़ाई की। जेब खर्च व फीस के लिए कई बार मुझे होटलों में पार्ट टाइम जाब भी करना पड़ा। फुट टाइम छात्र होने के बाद पार्ट टाइम जॉब करना बहुत चुनौतीपूर्ण रहा। बावजूद इसके सेमेस्टर परीक्षाओं में हमेशा जीपीए बेहतर ही रहा।
गहरी है संस्कारों की बुनियाद
आधुनिकता की अंधी दौड़ में जब बच्चों के पास अपने माता-पिता के लिए समय ही न हो। जिन्हें बुढ़ापे का सहारा समझा, पाला-पोसा, उम्र के आखिरी पड़ाव पर वे ही पुरसाहाल लेने न पहुंचे तो अंतर आत्मा द्रवित हो उठती है। मगर नीलेश ने सिर्फ शाही आन-बान ही ज्यादा था, भारतीय संस्कृति और परंपरा का दामन वे अब भी थामे हुए हैं। यही वजह कुछ माह पहले पिता की तबीयत बिगडऩे पर नीलेश न सिर्फ अमेरिका से बनारस आए, बल्कि तीन माह रहकर पूरी तन्मयता के साथ पिता की सेवा भी की। उनके लगन का ही परिणाम रहा कि 80 वर्ष की उम्र में शैय्या पर पड़े पिता को चलने-फिरने के काबिल बना दिया।
उपलब्धियां :
डाटा प्रॉसेसिंग मैनेजमेंट ऐसोसिएशन का गठन करने के साथ ही नीलेश कई स्वयं सेवी संस्थाओं से जुड़े हैं। इसके अलावा उन्होंने टेंपल इंटरफेथ आर्गनाइजेशन-यूएस में बतौर डायरेक्टर भी सेवाएं दी हैं। वहीं अमेरिकी सरकार के साथ भारत के पक्ष में कई संस्थाओं संग मिलकर लॉबिंग भी की।
संस्कार और सेवा भाव हैं बेटे की सफलता के मानक
तम्कुही रियासत से ताल्लुक रखने वाले नीलेश कि पिता नवेंद्र प्रताप शाही कहते हैं कि, 'पुत्र की सफलता आर्थिक आधार पर नहीं, बल्कि संस्कारों और नैतिकता को बनाए रखने में है। इस मामले में मैं खुशनसीब हूं। नीलेश को जो संस्कार हमने दिया, और जो कुछ भी उसने अपने पुरखों से सीखा, उनका पूरी तरह अनुपालन भी किया।' नवेंद्र कहते हैं कि, 'कुछ महीनों पहले मेरी तबीयत खराब हुई। उस समय नीलेश पत्नी शमिष्ठा शाही व दोनों बच्चों को वहीं छोड़ हमारी सेवा के लिए चला आया। पूरी तन्मयता के साथ यहां रहकर सेवा की। अपने हाथ से खाना खिलाने, हाथ पकड़कर चलाने-फिराने के साथ ही हर पल वो मेरे पास मौजूद रहा।' वहीं मां सुनैना शाही का कहना था कि, 'शाही परिवार से ताल्लुक होने के कारण सुविधाएं बहुत थी। मगर हमने बच्चों की पढ़ाई के लिए बनारस आने का फैसला लिया। यहां परेशानियां बहुत आई, मगर बच्चों की कामयाबी और उनका अपनी माटी से लगाव व समर्पण देख सारी दुश्वारी भूल जाती हूं।'