National Handloom Day : ताना-बाना में बुन रहे जीवन का फसाना, लॉकडाउन में अनलॉक रहे करघे
कोरोना महामारी ने मानो जीवन का पहिया थाम लिया। कारखाने व व्यापार लगभग ठप हैं। बनारसी वस्त्र कारोबार की हालत भी खस्ता है।
वाराणसी [मुहम्मद रईस]। कोरोना महामारी ने मानो जीवन का पहिया थाम लिया। कारखाने व व्यापार लगभग ठप हैं। बनारसी वस्त्र कारोबार की हालत भी खस्ता है। मगर इन सबके बीच इसी ने उम्मीद की राह भी दिखाई है। जी हां, लॉकडाउन में भी कुछ हथकरघा बुनकरों के कारखानों में खटर-पटर होती रही। ताने-बाने में जीवन का फसाना बुन कुछ बुनकरों ने अपने ख्वाब सजाए।
ऐसे ही एक हथकरघा बुनकर हैं बजरडीहा निवासी अब्दुल हलीम, जिनके पुरखों ने बनारसी साडिय़ों की बेजोड़ डिजाइनें बुनते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी इस हुनर को आगे बढ़ाया। हलीम भी बनारसी कढुआ साड़ी के बेहतरीन कारीगर हैं, जिसकी मांग देश ही नहीं सात समंदर पार भी हमेशा बनी रहती है। यही कारण है कि कोरोना काल में भी इनका पुश्तैनी तीन करघों वाला कारखाना चलता रहा। इस दौरान उन्होंने पांच जंगला बनारसी साड़ी बुनीं। एक साड़ी बुनने में करीब 20 से 25 दिन लगते हैं। हर एक की कीमत 15 हजार रुपये के आस-पास। इससे हलीम को संकटकाल में भी ठीक-ठाक मजदूरी मिलती रही और घर का खर्च चलाने में कोई परेशानी नहीं हुई। वहीं कई लोगाें को इन दिनों रोजी-रोजगार के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
कठिन डिजाइन में हैं माहिर
हलीम का छह सदस्यीय परिवार भी इस काम में पूरा सहयोग करता है। पत्नी जहां काटी भरने में मदद करती हैं तो वहीं कढुआ साड़ी की बुनाई में ढरकी फेरने में कभी बच्चों तो कभी पत्नी का साथ मिलता रहता है। कतान तानी व कतान बाना हो या फिर बनारसी साडिय़ों की लुप्तप्राय डिजाइनें, हलीम के हाथों की कारीगरी से अछूते नहीं हैं।
इन क्षेत्रों में बचा है हथकरघे का वजूद
बुनकर बहुल बड़ी बाजार, सरैंया, नक्खी घाट, पुराना पुल, लल्लापुरा, लोहता आदि क्षेत्रों में पावरलूम के बीच परंपरागत हथकरघे ने अभी तक अपना वजूद सहेजे रखा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिले में करीब 25 हजार हथकरघा बुनकर पंजीकृत हैं।