Naag Panchami 2020 : मेधा संग शौर्य पर्व के रूप में काशी में प्रतिष्ठित है नाग पंचमी महोत्सव
Naag Panchami 2020 मेधा और शौर्य के पर्व के रूप में काशी में प्रतिष्ठित नाग पंचमी महोत्सव का अपना महत्व है। बड़े गुरु ऋषि पाणिनि और छोटे गुरु पतंजलि महाराज का चलन आज भी जारी है।
वाराणसी [कुमार अजय]। युग बीते, पीढिय़ां गुजर गईं किंतु बुजुर्गवारों को भी याद नहीं कोई ऐसा साल जब मेधा और शौर्य के समन्वय पर्व नाग पंचमी के अवसर पर काशी नगरी की भोरहरी लयबद्ध हाकों से न गूंजी हो- बड़े गुरु... छोटे गुरु का नाग ल्यौ, भाई नाग ल्यौ...। प्राय: बारिश की रिमझिम से सिमसिम पाई जाने वाली पर्व की सुबह मोहल्लों के नन्हें बच्चों की जोडिय़ां गलबहियां डाले, टेर को दोहराते, नागराज वासुकी की छवि वाले रंगीन चित्रों का बंडल हाथ में संभाले, दरवाजे-दरवाजे जाती हैं। इन्हें गृहस्वामियों को भेंटकर मिठाई का नेग पाती हैं। इस बार हालांकि पर्व से जुड़े आयोजन पर कोरोना की छाया है।
बहुत कुछ बदल गया किंतु काशी के लोकमानस से गहरे तक जुड़े इस पर्व के लोकाचार नहीं बदले। छोटे गुरु-बड़े गुरु के नाम से जुड़ी इस टेर की लय और सुर नहीं बदले। चित्रों के चटख रंग नहीं बदले, उनके आकार नहीं बदले।वैसे भी भगवान शिव के गले में नाग की मौजूदगी और स्वयं भगवान शिव का काशी में वास करना भी इस पर्व की महत्ता अपने आप में ही जगजाहिर है।
पहले परिचय गुरुओं से
वैसे तो आला हो या अदना काशी में सभी गुरु हैं। अलबत्ता बड़े-छोटे की पदवी जुड़ जाने के बाद इस संबोधन के साथ कुछ वैशिष्ट्य अवश्य जुड़ जाता है। इस प्रथा के साथ जुड़े बड़े गुरु और छोटे गुरु के साथ भी ऐसा ही है। लोक से जुड़े मिथकों से अलग हटकर यदि पौराणिक आस्थाओं की गवाही ली जाए तो पता चलता है कि ये संबोधन महर्षि पाणिनि और उनके शिष्य पतंजलि के नाम से जुड़े हैं। इन दोनों महर्षियों ने ही नागपंचमी पर्व को मेधा और शौर्य के संयुक्त पर्व के रूप में प्रतिष्ठित किया। बच्चों द्वारा नाग बेचने की प्रथा भी वास्तव में पर्व में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयासों का ही अपभ्रंश है।
नागकूप के शास्त्रार्थ में अब भी शाखोच्चार
नागपंचमी पर नगर के जैतपुरा मोहल्ले के प्रसिद्ध नागकूप पर शास्त्रार्थ के आयोजन की परंपरा भी उसी काल खंड की बताई जाती है। जब ऋषि पतंजलि ने अपने गुरु महर्षि पाणिनि के सानिध्य में इसी नागकूप के आश्रम में बैठकर योग और व्याकरण सहित अनेक ग्रंथो की रचना की।
अखाड़ों में दंगली किलकारियां व ललकार
पर्व को एक संपूर्ण लोक उत्सव की शक्ल देने के निमित्त शास्त्रार्थ के साथ नगर के अखाड़ों में दंगल के आयोजन की शुरुआत हुई। मंतव्य था शास्त्र के साथ शौर्य की भी परीक्षा, आज भी इसी के अनुरुप ही बौद्धिकजन शास्त्रार्थ में तो श्रम साधक इन दंगलों में अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराते हैं। इसके अलावा मदारियों के साथ नगर के तांत्रिकों की सांकेतिक भिड़ंत की प्रथा, महुअर दंगल की परंपरा भी बहुत पुरानी हैै। इस दंगल में भारी भीड़ के बीच मंत्र प्रहारों के दांव-पेंच आजमाए जाते हैं। कितना सही और कितना झूठ, किंतु बताते हैं कि इस एक दिन के आयोजन से प्राप्त राशि से दूर-दराज के आदिवासी क्षेत्रों से आए सपेरों के वर्ष भर के योगक्षेम का वहन हो जाता। एक दो स्थानों को छोड़ दें तो रोमांच की पराकाष्ठा तक ले जाने वाले महुअर दंगलों का सिलसिला अब टूट चुका है।
नागकूप का मेला, जुटता अब भी रेला
पूजन-अर्चन की बात करें तो घर में पूजा के पश्चात काशी में प्रसिद्ध नागकूप के 120 फीट की गहराई में जलमग्न शिवलिंग के दर्शन-पूजन की परंपरा भी पुरानी है। यह शिवलिंग वर्ष में एक बार नाग पंचमी को ही जल से बाहर प्रकट होता है। इसी शिवलिंग को साक्षी बनाकर महर्षि पाणिनि के निर्देशन में ऋषिवर पतंजलि ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। कूप के दर्शन मात्र से काल सर्प योग से मुक्ति की भी मान्यता है।