यौम-ए-आशूरा : इमामचौक पर बैठाए ताजिए, रात भर उमड़ते रहे जायरीन, खेराजे-अकीदत किया पेश Varanasi news
शहीदाने कर्बला की याद सोमवार की शाम इमामचौकों पर ताजिए बैठाए गए। खेराजे अकीदत पेश करने व जियारत को रातभर अकीदतमंदों का हुजूम उमड़ता रहा।
वाराणसी, जेएनएन। हजरत इमाम हुसैन व उनके साथी मजहबे इस्लाम की खातिर शहीद हुए। कर्बला में उनकी शहादत ने इस्लाम और इंसानियत को बुलंदी दी। इस अजीम शहादत की याद ताजा करते हुए मंगलवार को शहर के विभिन्न इमामचौक से ताजिये के जुलूस निकाले गए। सदर इमामबाड़ा सरैंया, दरगाह फातमान व भवनिया कब्रिस्तान में देर शाम तक सैकड़ों ताजिये ठंडे किए गए। इनमें कोयला बाजार की नगीने की ताजिया, धन्नीपुरा की रांगे की ताजिया, दोसीपुरा की मोटे शाबान की जरी की ताजिया, लद्धनपुरा की कपूर की ताजिया, बजरडीहा की बुर्राक की ताजिया, अर्दली बाजार उल्फत कंपाउंड की जरी की ताजिया, नदेसर की सनई की ताजिया, हड़हा सराय की पीतल की ताजिया, नई सड़क की चपरखट की ताजिया, गौरीगंज की शीशम की ताजिया, बाकराबाद की बुर्राक की ताजिया, पठानीटोला की पीतल की ताजिया, हुकुलगंज की तुर्बतनुमा ताजिया सहित मदनपुरा, रेवड़ी तालाब, नदेसर, बजरडीहा, बड़ी बाजार, सरैंया, पुरानापुल आदि के सैकड़ों ताजिए यौम-ए-आशूरा (10 वीं मुहर्रम) को ठंडे किए गए। शहर के उत्तरी क्षेत्र के ताजिए जहां सरैंया इमामबाड़े में ठंडे हुए वहीं अन्य क्षेत्र के ताजिये लल्लापुरा स्थित दरगाह फातमान ले जाए गए। वहीं मगरिब की अजान पर रोजेदारों ने इफ्तार किया। इस्लाम में मुहर्रम की 9-10 या 10-11 तारीख का रोजा रखना सुन्नत है। बहुत से घरों में लोगों ने गुरुवार व शुक्रवार को रोजा रखा, जिन लोगों का गुरुवार का रोजा छूट गया है, वे शनिवार को रोजा रखकर अपना दो दिन का रोजा मुकम्मल करेंगे।
कमा का मातम कर पेश किया लहू का नजराना
दोषीपुरा स्थित इमामबाड़ा बारादरी से चार ताजिये के साथ जंजीर का मातमी जुलूस निकाला गया। अंजुमन कारवाने कर्बला, अंजुमन जाफरिया दोसीपुरा बनारस, अंजुमन जाफरिया कदीम, अंजुमन अजादारे हुसैनी के संयोजन में अजादारों ने रास्ते भर जंजीर व कमा (खंजर) के जरिए लहू का नजराना पेश किया गया। इसमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे। सैकड़ों शिया मुस्लिम मातम करते हुए दोपहर लगभग 12 बजे सदर इमामबाड़ा सरैंया पहुंचे, जहां ताजिये को ठंडा किया गया।
फन-ए-सिपहगरी का प्रदर्शन
ताजिये के साथ अखाड़ों के शागिर्द व खलीफा फन-ए-सिपहगरी का प्रदर्शन करते चल रहे थे। बच्चे जहां लाठी, बनेठी, भाला लेकर युद्ध कला कौशल का बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे, वहीं युवाओं ने तलवारबाजी में अपना हुनर दिखाया। भारतीय फन-ए-सिपहगरी एसोसिएशन उप्र के सचिव मोहम्मद शाहिद अंसारी के अनुसार पारंपरिक अखाड़ों से युवाओं की दूरी ने इसकी रौनक मद्धिम कर दी थी। सामूहिक प्रयास से अब अखाड़ों में अच्छी संख्या में युवा खलीफा के पास इन कलाओं को सीखने पहुंच रहे हैं।
मंदिरनुमा है काशी की यह ताजिया
देखने में बिल्कुल मंदिर की बनावट, मगर है ताजिया। अकीदत ऐसी कि मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिंदू भाई भी लगाते हैं हाजिरी। जी हां..., बात हो रही है हरिश्चंद्र घाट स्थित एक ऐसे इमामबाड़े व उसमें स्थापित ताजिए की, जिसके वजूद की कहानी एक कुम्हार की श्रद्धा से जुड़ी है।
कुम्हार के अटूट विश्वास के कारण ही इस इमामबाड़े का नाम 'कुम्हार का इमामबाड़ा' पड़ा। इसमें स्थापित ताजिया शहर के अन्य ताजियों से अलग है। इसकी बनावट बिल्कुल मंदिर की तरह है। यहां एक ओर शिया मुस्लिम जहां मजलिस करते हैं, वहीं हिंदू भाई हाथ जोड़कर अकीदत से फूल चढ़ाते हैं। मुहर्रम नजदीक आते ही आस-पास के ही हिंदू भाई इसकी साफ-सफाई और रंग-रोगन का काम कराते हैं।
इमामबाड़े का इतिहास : हरिश्चंद्र घाट स्थित कुम्हार का इमामबाड़ा लगभग 150 वर्ष पुराना है। इसकी देखरेख एक हिंदू कुम्हार परिवार कर रहा है, तो वहीं सरपरस्ती शिया वर्ग के हाथ है। इमामबाड़े के मुतवल्ली सैयद आलिम हुसैन रिजवी बताते हैं कि करीब 150 वर्ष पहले इमामबाड़े के पास ही एक हिंदू कुम्हार परिवार रहता था। उसका एक बेटा था, जो हर वर्ष मुहर्रम पर मिट्टी की ताजिया बनाता था। पिता ने पहले तो बच्चे को ताजिया बनाने से मना किया। वह जब नहीं माना तो उसकी खूब पिटाई की। इससे बच्चा इतना बीमार हुआ कि वैद्य, हकीम भी काम न आए। बेटे को लेकर पिता की चिंता बढऩे लगी। एक दिन कुम्हार ने सपने में देखा कि एक बुजुर्ग उसके सामने खड़े हैं। वह कह रहे हैं कि तेरा बेटा मुझसे अकीदत रखता है। तुमने उसे ताजिया बनाने से रोक दिया, तो वह बीमार पड़ गया है। अगर तुम्हें उससे मोहब्बत नहीं है तो मैं उसे अपने पास बुला लेता हूं। कुम्हार ने स्वप्न में ही अपनी गलती मानते हुए कहा कि बस एक बार आप मुझे माफ करके मेरे बच्चे को ठीक कर दें। इस पर बुजुर्ग ने कहा कि नींद से उठकर देख, तेरा बच्चा खेल रहा है। आलिम हुसैन अपने बड़े-बुजुर्गों की जबानी बातों को याद करते हुए बताते हैं कि नींद से जगकर कुम्हार ने देखा कि जो बच्चा गंभीर रूप से बीमार था, वह न केवल पूरी तरह स्वस्थ था, बल्कि बच्चों के साथ खेल भी रहा है।
इसलिए दिया गया मंदिर का रूप : आलिम हुसैन बताते हैं कि उन दिनों अवध के नवाब शहादत हुसैन अपने पिता से नाराज होकर बनारस आ गए थे। उन्हीं की वंशज बाराती बेगम ने कुम्हार के बेटे का हजरत इमाम हुसैन के प्रति लगाव देख यह इमामबाड़ा बनवाया। इसकी देख रेख युद्ध-कौशल की शिक्षा देने वाले सैयद मीर हसन के परिवार को सौंपी गई। सैयद आलिम हुसैन उन्हीं के वंशज हैं। कहते हैं कुम्हार की आस्था के कारण न सिर्फ इमामबाड़े को 'कुम्हार का इमामबाड़ा' नाम दिया गया, बल्कि स्थापित ताजिया भी मंदिरनुमा बनाई गई। उसी समय से आस-पास के हिंदू भाइयों की आस्था इमामबाड़े से जुड़ गई।
निकला दूल्हे का जुलूस, ताजियों को दी सलामी
दूल्हा कासिम नाल कमेटी की ओर से शिवाला स्थित इमामबाड़े से विश्व प्रसिद्ध दूल्हे का जुलूस सोमवार देर रात परंपरानुसार निकला। जुलूस में शामिल लोग दहकते अंगारों के ऊपर से नंगे पांव गुजरते हुए 60 ताजिए, 41 इमामबाड़े और दर्जनों अजाखाने में सलामी देते दरगाह फातमान पहुंचेंगे। जुलूस अगले दिन शिवाला स्थित इमामबारगाह पहुंचकर समाप्त होगा। दूल्हे के जुलूस के दौरान नगर के 72 स्थानों पर दहकते अंगारे बिछा दिए जाते हैं, जिनके ऊपर से होकर यह जुलूस गुजरता है। जनश्रुतियों के मुताबिक करीब ढाई शताब्दी से उठने वाला दूल्हे का यह जुलूस हजरत इमाम हुसैन के बेटे की शहादत को सलामी देने के लिए उठता है।