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वाराणसी: पौधों पर उड़ेलते प्यार, हरियाली का करते व्यापार

एक दुबला-पतला शख्स डिवाइडर पर पौधे रोपते व उसकी देखभाल करते मिल जाए तो समझ लीजिए वह राधेश्याम सिंह हैं।

By Krishan KumarEdited By: Published: Sat, 01 Sep 2018 06:00 AM (IST)Updated: Sat, 01 Sep 2018 05:43 PM (IST)
वाराणसी: पौधों पर उड़ेलते प्यार, हरियाली का करते व्यापार

चांदनी रात में अगर आप भेलूपुर से लंका वाया गुरुधाम होते जा रहे हैं और एक दुबला-पतला शख्स डिवाइडर पर पौधे रोपते व उसकी देखभाल करते मिल जाए तो समझ लीजिए वह राधेश्याम सिंह हैं। लगभग 30 वर्षों से पौधों की सेवा से जुड़कर निरंतर अपना प्रयास जारी रखे हुए हैं। इनकी खासियत है कि सेवा के बदले कभी किसी से कोई लाभ व सम्मान पाने की चाहत नहीं रखी। कहा जाता है कि एक पौधा लगाना पुण्य का काम है, लेकिन उसकी सेवा करना और सुरक्षित रखना उससे भी बड़ा पुण्य होता है।

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मूलरूप से मीरजापुर के अहरौरा निवासी राधेश्याम सिंह के परिजन लगभग 70 साल पहले वाराणसी के खोजवां में बस गए और लकड़ी से खिलौना बनाने के काम से जुड़ गए। यहीं पर उनका जन्म हुआ। 58 वर्षीय राधेश्याम बताते हैं कि परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आते ही लकड़ी के काम संग 1988 से गुरुधाम निवासी अनिल सेठ के घर सुबह-शाम दो-दो घंटे भगवान की पूजा करने लगे। इससे थोड़ी आय और हो जाती थी।

यहीं पर गमलों में पौधे लगाने का सिलसिला शुरू हुआ। धीरे-धीरे पौधों से लगाव बढ़ता गया। एक समय ऐसा आया कि लकड़ी का काम मंदी की मार की वजह से बंद हो गया। ऐसे में वर्ष 1992 से 1994 तक माली का काम किया। उसके बाद परिवार का बोझ बढ़ा तो माली का काम छोड़ पेंटिंग के पेशे से जुड़ गए लेकिन जब भी मौका मिलता पौधों की सेवा से परहेज नहीं करते। भले ही उसके लिए एक-दो दिन काम बंद ही करना पड़े। वे शहर में कहीं भी जाते समय सड़क किनारे या डिवाइडर पर लगे पौधों को मवेशी या बंदर क्षति पहुंचाते दिख गए तो उखड़े पौधों को फिर से लगाकर सुरक्षित करते हैं।

पौधों की सेवा को हमेशा रहते तत्पर
पिछले सप्ताह गुरुधाम कालोनी में डिवाइडर पर पौधरोपण किया गया। उस समय कई पौधे सही से नहीं लगे थे तो खुद ही उन्हें उखाड़ कर लगाया। घर से जब भी निकलते या काम से लौटते दिन हो या रात एक बार पौधों की सुध जरूर लेते हैं। कालोनी में कुछ परिचितों द्वारा जब भी पौधे लगाने का संदेशा भेजा जाता वे सारे काम छोड़कर सबसे पहले पौधे ही लगाते हैं। इसके लिए किसी आर्थिक लाभ की कामना भी नहीं करते। वे पौधों की सेवा को ही अपना मेहनताना मान लेते हैं।


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