Lokkavi Chakachak Banarasi Death Anniversary खाटी काशिका बोली में अक्खड़ कबीर थ्ो चकाचक बनारसी
वे भी दिन हुआ करते थे जब मस्तमौला बनारसी काशिका बोली के कुशल चितेरे चकाचक बनारसी के शब्द चित्रों से हर मौसम या यूं कहे कि लम्हें-लम्हें कि चहलकदमी की आहट पाते थे।
वाराणसी [कुमार अजय]। बीमारी हो या महामारी क्या मजाल सावन की हरियाली के रसिया देव महादेव की नगरी काशी में इस तरह से रीता-रीता बीत जाता। लोककवि चकाचक बनारसी के होते हुए लॉकडाउन की मार से इस कदर ढहता ढिमलता। जी हां वे भी दिन हुआ करते थे जब मस्तमौला बनारसी काशिका बोली के कुशल चितेरे चकाचक बनारसी (रेवती रमण श्रीवास्तव, जन्म 22 दिसंबर 1932, देहावसान 14 जुलाई 1999) के शब्द चित्रों से हर मौसम या यूं कहे कि लम्हें-लम्हें कि चहलकदमी की आहट पाते थे। बुढिय़ा दादी कजरी गवलस सावन आयल का? धनुई फिर गोदना गोदवलस सावन आयल का? जैसे संदेशों से दो-चार होने के बाद ही प्रकृति के विविध रंगों के अनुरूप मन-मिजाज बनाते थे। काशी नगरी वैसे तो कलाकारों और रचनाकारों की कूंची-कलम को सदियों से ऊर्जा देती आई है। किंतु खाटी काशिका बोली में अक्खड़ कबीर की तरह सातै मन लकड़ी में जरब, काहें पाप बटोरत हउवा। जैसी बेलौस बयानी से चकाचक जैसी लोकप्रियता बिरलों ने ही कमाई हैै। अब बात कोरोना महामारी की ही ले लें। चकाचक के होते हुए मरदुई इस महामारी की क्या अवकात की मस्त मिजाजों के इस जिंदा शहर में इस कदर सियापा पसार पाती यह ठीक है कि कागज पर उकेरे गए कुछ शब्दों से महामारी के शमन की उम्मीद नहीं की जा सकती। किंतु सच यह भी है कि अपने चुटीले अंदाज में चकाचक गुरु जब कोरोना के सात पुश्तों का तर्पण करते तो बनारस वालों की हिम्मत (आठवें आसमान) पर जा पहुंचती।
याद आती है 70 के दशक में महामूर्ख सम्मेलन के अवसर पर चौक थाने के ठीक सामने भद्दोमल कोठी की खुशफैल छत पर आयोजित कवि सम्मेलन की। मंडल और जिले के तमाम अधिकारी श्रोताओं की अगली कतार में पलहत्थी मारकर बैठे थे और गुरु चकाचक बड़ी ही मासूमियत से रिश्वतखोरी पर मजबूरी का मुलम्मा चढ़ाते अपनी रौ में बस पढ़ते जाते -
अफसर लेहलस घूस त ओकरे मूड़े पर भी बहुत भार हौ।
क्लब, पिकनिक हौ, दावत हौ
नौकर, बंगला और कई कार हौ
दफ्तर के बड़का बाबू के त
समझा घूसै अधार हौ तीन अवारा लडि़का हौ, दुई जोरू मुड़े उधार हौ
घूसै के बल पर त होला
आज रंग चटकीला समझ
अपने आप गरीबी में हो रहल हौ
आटा गीला समझ
आप खुद कल्पना कर सकते हैैं उस अटपटे दृश्य की। जनता जिया रजा बनारस... कि लय के साथ थपोडिय़ां बजाते और अगली पंक्ति के बहुत से बड़वार लोग बगली झांकते-झंकाते।
कानपुर कांड के बाद इन दिनों राजनीति के अपराधीकरण की चर्चा जोरों पर हैैं। संकेतों और प्रतीकों में बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है पर दशकों पूर्व जब चकाचक की कलम इस नापाक गंठजोड़ पर वार करती थी तो कुछ भी इशारों में नहीं जो कहा सपाट कहा फिक्र नहीं कि कौन खुश हुआ और कौन नाराज रहा। पचासवें स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित कवि सम्मेलन में जरा चकाचक की यह बानगी देखिए-
कलुआ सरवा रहल नलायक
भभ्भड़ में हो गयल विधायक
ओकर इनकाउंटर का होई
पुलिस हो गयल आज सहायक
हाथ जोड़ अइसे चलेला
जइसे रामनगर क राजा
ई पचासवीं आजादी ह
खुलल हौ घर क कुल दरवाजा
तोहऊं आजा... तोहऊं आजा
एक बात और चकाचक ने जिसके ऊपर लिखा वह तो कृतार्थ हुआ ही जिसे भूल गए वह मायूस हो जाता था। खासकर होली के अवसर पर जिसके नाम से चकाचक ने शाखोच्चार नहीं किया (यानी गरियाया नहीं) उसका चेहरा सीने तक लटक आता था। हजारों की भीड़ में वह अपने को अकेला ही पाता था। आज जब शहर में सड़क से साहित्य तक हर तरफ सन्नाटा है। सिस्टम को लेकर हर तरफ रोना। महसूसता है हर कोना चकाचक का न होना।