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नहीं हिला घरऊं लक्ष्मी-गणेश का पीढ़ा, नई नवेली मूर्तियों की भीड़ में भी सिंदूरी मूरत का अब तक हो रहा पूजन

एक तरफ बाजार पटा पड़ा है अद्यतन प्रयोगों से गढ़ कर निकली लक्ष्मी-गणेश की आकर्षक प्रतिमाओं से जिनका आकर्षण बरबस ही कदम रोक लेता है।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 18 Oct 2019 10:33 AM (IST)Updated: Fri, 18 Oct 2019 11:24 AM (IST)
नहीं हिला घरऊं लक्ष्मी-गणेश का पीढ़ा, नई नवेली मूर्तियों की भीड़ में भी सिंदूरी मूरत का अब तक हो रहा पूजन

वाराणसी, जेएनएन। मेकअप और मेकओवर का दौर। मूरतों के गढऩ में नित नूतन प्रयोगों पर जोर। ऐसे में अपने ही स्वागत में आयोजित उत्सव में पधारने के लिए लक्ष्मी मइया व गणेश जी भइया इस सजाव सिंगार की होड़ से भला कैसे बरी रह जायें। दिक्कत तो बस इतनी है कि स्पर्धा भी अपने से ही और प्रतिस्पर्धा भी अपने ही रूप रंग से। दरअसल यह होड़ नूतन और पूरातन के वर्चस्व को लेकर है।

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एक तरफ बाजार पटा पड़ा है अद्यतन प्रयोगों से गढ़ कर निकली लक्ष्मी-गणेश की आकर्षक प्रतिमाओं से जिनका आकर्षण बरबस ही कदम रोक लेता है। दूसरी तरफ कतार सिंदूरी रंग व खांटी बनारसी शैली वाली परंपरागत मूरतों की जिन्हें पूजे बगैर बनारसी भक्तों का मन चैन नहीं लेता है। जाहिर है बनारसी मन नवीनतम को भी उमग कर अपनाने को तैयार सही। अलबत्ता किसी भी कीमत पर अपनी परंपराओं से कटने को तैयार नहीं।

 

आसान नहीं वज्रासन 

इसका जवाब मिलता है महमूरगंज कोहराने के दक्ष शिल्पी मनोहर चच्चा से बतकही के दौरान कहते हैैं चच्चा टेराकोटा, प्लास्टर आफ पेरिस, नारियल खोल, चमकीले कांच, धातू के मूरतों की एक से बढ़कर एक किस्में बाजार में हैैं। लोग हाथोंहाथ इनकी खरीदारी भी कर रहे हैैं। अब तो देश के बढ़ते वैभव के साथ सोने, चांदी की मूर्तियां भी खरीदी जाने लगी हैैं। मगर ये सभी मिलकर भी सैकड़ों साल से दीपावली के बाजार के सिरमौर रहे सिंदूरी आभा और सुनहरी- रूपहली सज्जा से अलंकृत गणेश-लक्ष्मी की मूरतों का पीढ़ा नहीं हिला पाये हैैं। बैठकखानों की सज्जा में इन अधुनातन प्रतिमाओं ने यकीनन बड़ी जगह छेंकी हैै लेकिन पूजा के पीढ़े पर तो अब भी सिंदूरी आभा वाले देवों का ही एकाधिकार है। 

रोली तो बस घरऊं लक्ष्मी-गणेश के भाल

उनकी इस राय की तस्दीक करते हैैं चेतगंज क्षेत्र में मूर्तियों व भड़ेहरों की टाल लगाये बैठे सनकू प्रजापति बताते हैैं ऐसे-ऐसे भी ग्राहक दुकान पर आ रहे हैैं जो नये चलन की मूर्तियों का चार-चार सेट उठा रहे हैैं। मगर वह भी घर में बड़े बुढ़ों व महिलाओं से राय बात के बाद लौटकर फिर टाल पर आ रहे हैैं और पूजा के लिए सिंदूरी मूरत ही बीछकर ले जा रहे हैैं। दरअसल दो सदियों से भी पहले सांचे में ढली मिट्टी की सिंदूरी मूरत की छवि लोगों के मन में संस्कार की तरह रची बसी है। सजावट के लिए लोग भले ही सोना रूपा की मूर्ति ले लें लेकिन उन सबकी पूजन वेदिका पर तो अपने घरऊं लक्ष्मी गणेश ही बिराजेंगे।

गहरी है आस्था की पैठ हर मन में 

काशी विश्वनाथ मंदिर के अर्चक श्रीकांत मिश्र कहते हैैं अपने गौरवशाली परंपराओं और संस्कारों को लेकर मुग्धता का भाव बिल्कुल सहज और स्वाभाविक है यही भाव जब श्रद्धा के साथ जुड़ जाता है तो लोकाचारों की शक्ल में मन की गहराईयों तक पैठ जाता है। 


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