ई हौ रजा बनारस : एक दिया देश के शहीदों के अनंत आकाश का, अंतहीन प्रकाश का
वाराणसी में राष्ट्रीय पर्व बनकर उभरा है एक पौराणिक उत्सव। जो मनाया जाता है काशी के दशाश्वमेध घाट पर और इसका नाम है आकाशदीप अनुष्ठान।
वाराणसी (जेएनएन) : हम आजादी के उजालों को जी सकें, इस ध्येय की खातिर देश की सीमा पर लड़ते हुए मौत के घटाटोप अंधेरे में खो जाने वाले शहीदों यह आकाशदीप तुम्हारे नाम..। इस सदिच्छा से कि अनंत यात्रा का तुम्हारा अनंत पथ सर्वदा आलोकित रहे। दिग्दिगंत तक, चिरपर्यत तक तुम्हारी यशोगाथा की मलायानिल बहे।असीम श्रद्धा के कुछ ऐसे ही भावों के साथ शरद पूर्णिमा की शाम से ही सैकड़ों आकाशदीप इन दिनों नित्य सुंदर पिटारियों में सजकर बांस के ऊंचे स्तंभों पर चढ़ रहे हैं।
हल्की ओस से भीगी कार्तिकी संध्या के सौंदर्य के नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं। हर रोज इस श्रद्धा अनुष्ठान की साक्षी बन रहीं दशाश्वमेध घाट की पथरीली सीढि़यां, जिन्होंने सैकड़ों वर्ष पुराने एक पर्वोत्सव की पौराणिक गाथाओं को बलिदान के नमन की कीर्ति कथाओं में बदलते देखा है। किसी भी परंपरागत उत्सव को नए संदर्भो से जोड़कर कैसे राष्ट्रीय उत्सव के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है, इसकी मिसाल है दशाश्वमेध घाट का आकाशदीप अनुष्ठान। दिव्य कार्तिक मास में दिवंगत पुरखों के पुण्य स्मरण को घाटों, सरोवरों व छतों पर आकाश दीप जलाने व एक महीना बाद कार्तिक पूर्णिमा की रात इसके समापन पर देव दीपावली का भव्य उत्सव मनाने की काशी में पुरानी परंपरा रही है। आयोजन की मूल भावना को यथावत रखते हुए इसे शहादती पर्व के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय है देव दीपावली को हर साल नया कलेवर व तेवर देने के प्रयास में जुटी संस्था गंगा सेवा निधि को, जिसने भारतीय सेना की स्थानीय इकाइयों को पर्व से सीधे जोड़कर इसे एक राष्ट्रीय उत्सव की श्रेणी में ला खड़ा किया। संस्था के अध्यक्ष सुशांत मिश्र बताते हैं-'दिवंगत पुरखों की स्मृतियों को नमन करता यह पर्व काशीवासी पीढि़यों से मनाते चले आ रहे हैं। संस्था के दिवंगत संस्थापक पंडित सत्येंद्र नाथ मिश्र (उपनाम मन्नन महराज) के मन में बस यूं ही एक भाव जगा और कारगिल विजय के बाद 2008 में उन्होंने इस त्योहार को अमर शहीदों की स्मृतियों से जोड़कर इसे भारतीय सेना और काशी के जनमानस के साझा उत्सव का स्वरूप देने की ठान ली। इसी वर्ष 39 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर के स्थानीय अधिकारियों से बात की। पर्व के साथ जुड़े उदात्त भावों से उन्हें अवगत कराया।' सुशांत बताते हैं कि इस प्रस्ताव पर सैन्य अधिकारियों का जोश वाकई देखने लायक था। यहीं से एक कल्पना ने आकार लिया और इस पौराणिक घाट पर शहीद स्मृति पर्व की बुनियाद पड़ गई। कार्तिक मास के पहले दिन गोधूलि बेला में जब सेना के अधिकारी आकाशदीप जलाते हैं तो लोगों की स्मृति में अपने बलिदानी सैनिकों की पाकीजा शहादत के दृश्य कौंध जाते हैं।
आंखों में नमी किंतु मन में राष्ट्र गौरव के भाव उमड़ आते हैं। देव दीपावली की शाम घाट पर बनी इंडिया गेट की अनुकृति के सामने गोरखा जवानों की कड़क सलामी हर दिल को देशभक्ति के जोशीले भावों से भर देती है। श्रद्धा और आस्था के साथ राष्ट्रभक्ति के जज्बे का यह मेल संजीवनी का काम करता है। हर दिल को नई ताजगी व ऊर्जा से भरता है। पौराणिक ग्रंथों ने आकाशदीप की आध्यात्मिक व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इसके अनुसार आकाश परम ब्रह्मा परमात्मा का प्रतीक है। बांस की पिटारी में प्रयुक्त खपच्चियां या 'करंड' जीवात्मा के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। पिटारी में टिमटिमाता दीप दोनों ही अस्तित्वों के संगम का साक्ष्य बनता है।