लमही महोत्सव से दूर रहा लमही
वाराणसी ही नहीं दुनिया भर में मुंशी प्रेमचंद ही शायद अकेले साहित्यकार है जिनके गांव में उनकी जयंती पर समारोह का आयोजन होता है।
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प्रमोद यादव, वाराणसी :
देश ही नहीं दुनिया भर में मुंशी प्रेमचंद ही शायद अकेले साहित्यकार होंगे जिनकी जयंती पर उनके गांव में मेला सजता होगा। संस्कार और सरोकार से जुड़ा यह अनूठा उत्सव किसी धरोहर से कम नहीं लेकिन इसे सहेजने-सजाने के बजाय प्रशासनिक बेपरवाही ही नजर आई, जिसने चौड़ी कर दी गांव और शहर की खाई। दरअसल, क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र की ओर से प्रेमचंद जयंती उत्सव (लमही महोत्सव) का स्थान मुंशीजी का स्मारक जरूर रहा मगर असल लमही तो ग्राम सभा की ओर से रामलीला मैदान में आयोजित मेले में ही नजर आई। सरकारी आयोजन में ¨हदी के भारी भरकम शब्द गांव वालों के पल्ले पड़ने वाले न रहे तो महंगे पंडाल में उनके लिए घुसने की जगह भी नहीं बची। ऐसे में गांव का कोई बच्चा इस ओर आया भी तो दुबकते हुए खुद को उल्टे पांव पाया। हालांकि दो साल पहले दोनों आयोजनों को एक करने का संस्कृति विभाग की ओर से टेंट-माइक का खर्च उठाने का भरोसा देते हुए प्रयास जरूर किया गया लेकिन जयंती बीतते-बीतते वह धोखा ही साबित हुआ। ऐसे में ग्रामसभा ने सरकारी आयोजन से दूर रहते हुए परंपरागत तरीके से रामलीला मैदान में मेला सजाया और अपने मुंशी जी के जन्मोत्सव में रंग भरे। वैसे गांव के परिदृश्य पर भी नजर डालें तो यह फर्क साफ नजर आता है। पुराना गांव अपने रूप में आबाद है। इसमें कुछ पक्के मकानों के बीच खपरैल, भड़भूजे की भट्ठी, चाक-कोल्हू दिखता है तो खेतों-बागों के स्थान पर नए मकानों के रूप में कालोनियां बस चुकी हैं।
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सरकारों के साथ बदलते
गए प्रशासनिक सरोकार
प्रेमचंद की 125वीं जयंती पर 2005 में लमही को सजाने के बड़े-बड़े दावे किए गए। केंद्र व प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने लमही समेत मुंशी जी से जुड़े शहर भर के स्थलों को संवारने का बीड़ा उठाया। इस पर करोड़ों रुपये खर्च भी किए लेकिन रख रखाव का इंतजाम न होने से सपने खाक हो चुके हैं। मकान को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा पाने का इंतजार है तो नालियां अपना अस्तित्व खो चुकी हैं और मुंशी प्रेमचंद को समर्पित सरोवर गांव-घर से निकले मलजल का निस्तारण केंद्र है।
पंट्टा हो गया प्रेमचंद सरोवर तालाब
मुंशी प्रेमचंद सरोवर को साफ करने में दो साल पहले गांव वालों ने कड़ाके की ठंड में जी जान लगा दिया। इससे उसकी रंगत निखरी तो मत्स्य विभाग ने इसे मछली पालने के लिए पंट्टे पर दे दिया। स्थिति यह कि इसमें पानी भरने के लिए लगाए गए सबमर्सिबल में बिजली का खुला तार दौड़ाया गया है। यह हर वक्त खतरे का सबब हो सकता है लेकिन इसे जयंती के मौके पर भी नहीं हटाया गया।
शोध केंद्र को स्टाफ का इंतजार
गांव में मुंशी प्रेमचंद शोध अध्ययन केंद्र का ढाई करोड़ की लागत से निर्माण कराया गया। बीएचयू के अधीन केंद्र का दो साल पहले उद्घाटन भी हो गया लेकिन सिर्फ ईट-पत्थर की इमारत ही साबित हुआ। इसके रखरखाव के लिए दो चौकीदार व एक माली के सिवा कोई नजर नहीं आता। बीएचयू को अब तक स्टाफ का इंतजार है। पिछले साल मुंशी जी के भवन में प्रोजेक्टर लगाकर उनकी स्मृतियों से रूबरू कराने की कवायद भी शुरू हुई लेकिन जयंती बीतने के बाद योजना गुम हो गई।