काशी हिन्दू विश्वविद्यालय : ...जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
विदेश के तमाम विश्वविद्यालय स्थापना के 300 साल बाद भी अपनी पहचान और सिद्धांत बनाए हुए हैं वहीं अपने शताब्दी वर्ष पूरे होने के साथ ही बीएचयू की जड़ें चरमराने लगी हैं।
वाराणसी [राकेश पांडेय] । बीएचयू को मूल काशी की सरहदों से दूर इसलिए बनाया गया था कि देशभर के वे कर्मयोगी आकर यहां बसें और शिक्षा व मानवता का प्रसार करें जिन्हें मोक्ष नहीं चाहिए, बस एक प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण करना है। अन्य संस्थाओं से इतर काशी हिंदू विश्वविद्यालय एक सिद्धांत और दर्शन का प्रतीक है जिसमें वसुधैव कुटुंबकम प्रतिबिंबित होता था। विदेश के तमाम विश्वविद्यालय स्थापना के 300 साल बाद भी अपनी पहचान और सिद्धांत बनाए हुए हैं वहीं अपने शताब्दी वर्ष पूरे होने के साथ ही बीएचयू की जड़ें चरमराने सी लगी हैं। ऐसे मंजर सामने आने लगे हैं कि पेड़ की एक डाल दूसरी डाल को नष्ट करने पर आमादा है। अगर इसे विज्ञान की भाषा में परिभाषित किया जाए तो ऐसा लगता है कि यहां का पूरा तंत्र ऑटो इम्यून डिजिज का शिकार होकर खुद को नष्ट किए जा रहा है।
ऐसा नहीं कि अभी हुआ मेडिको-नॉन मेडिको का झगड़ा पहली बार हुआ, और ऐसा भी नहीं कि यह इस टकराव की आखिरी बानगी थी। इतना जरूर है कि जो चीजें तीन-चार साल में कभी एक बार हुआ करती थीं उन्होंने तीन-चार माह के अंतराल पर गति पकडऩे लगी हैं। ऐसा लगता है कि पूरा विश्वविद्यालय अराजक तत्वों का बंधक बन चुका है। ये उस विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास पर लगते धब्बे हैं जिसके कुलगीत लेखक डा. शांति स्वरूप भटनागर के नाम पर देश का सबसे बड़ा विज्ञान पुरस्कार दिया जाता हो। जिसके विज्ञान संकाय के छात्र प्रो. सीएनआर राव को भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका हो, जिसके संकायों व संस्थानों से निकले लाखों ज्योतिपुंज भारतीय नभ के हर क्षेत्र को प्रकाशवान कर रहे हों। अभियांत्रिकी, कृषि, वाणिज्य, विज्ञान, कला व प्रबंधन से लगायत चिकित्सा क्षेत्र तक के होनहारों की देश के धुरंधरों में गिनती की जाती है। वर्ष 1995 से 2000 के बीच एक समय ऐसा आया जबकि भारतीय राजनीति की सभी प्रमुख पार्टियों के थिंक टैंक रहे लोग यहीं के पढ़े हुए थे और संसद में 70 से अधिक यहीं के पूर्व छात्र रहे।
प्रतिभाओं ने मनवाया है लोहा
विवादों में अक्सर रहने वाले बिड़ला छात्रावास ने इस देश को डा. कृष्णकांत जैसा उपराष्ट्रपति दिया और वर्तमान राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश भी इसी बीएचयू परिसर से निकले। अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंच से इस बात की सराहना की थी कि अन्य जगहों से इतर यहां के छात्र सिर्फ वंदेमातरम का नारा लगाते हैं। यहां की कुछ प्रतिभाएं ऐसी थीं जिन्होंने एक क्षेत्र में परचम फहराने के बाद इसी विश्वविद्यालय में दूसरे क्षेत्र में भी अपना लोहा मनवाया। चिकित्सा विज्ञान संस्थान के प्रो. गंगराडे को जब ये लगा कि संगीत उन्हें पुकार रहा है तो वे वीणा के पुजारी हो गए। बाद में संगीत मंच कला संकाय के प्रोफेसर व हेड भी बने।
आखिर किसकी लगी नजर
आखिरकार फिर किसकी नजर लग गई कि परिसर का रेशा-रेशा एक-दूसरे के खिलाफ लडऩे पर उतारू है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि यौवन पर चढ़ी नदी और यौवन पर चढ़ा रक्त दोनों उफान मारता है, तोडफ़ोड़ कर अपना रास्ता तैयार करता है। इस उफनती ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने के ही लिए नदियों में बांध और हॉस्टलों में वार्डेन व शिक्षकों की नियुक्ति होती है। नदियों और बांध का सही तारतम्य न होने की परिणति बंधों के टूटने में होती है जिससे नदियां विध्वंस की कहानी लिख देती हैं। कमोबेश यही स्थिति छात्रों व हास्टल वार्डेन और संकाय शिक्षकों के बीच होती है। जहां अगर उनके सड़क के बीच में सम्मान और विश्वास का बांध न हो तो सड़कें पत्थर से पटेंगी ही। जहां छात्र संसाधन, सुविधाओं और उचित व्यवस्थाओं के अभाव में परेशान रहते हैं वहीं करोड़ों रुपये खर्च कर अभेद्य किले में तब्दील प्रॉक्टर आफिस और उनकी बड़ी फौज हर बार, हर मोर्चे पर नाकाम रही है। बावजूद इसके छात्रों की कीमत पर उनकी सुविधाओं में इजाफा होता रहा है। पिछले तीन दशक का इतिहास इस बात का गवाह है कि जहां चीफ प्रॉक्टर कार्यालय की सुविधाओं, संसाधनों, बजट और उनकी तथाकथित सेना में लगातार वृद्धि हुई है, वहीं छात्रों के हितों की योजनाएं कछुए की चाल से रेंग रहीं हैं।
नहीं हुए कभी समन्वित प्रयास
झगड़ा चाहे जिस पक्ष से हो अंत लाभ हमेशा प्रॉक्टर तंत्र का हुआ है। यह भी एक अचरज की बात है कि कभी भी झगड़े के मूल कारणों में जाकर उसे सुलझाने के समन्वित प्रयास नहीं किए गए हैं। यही कारण है कि आज विश्वविद्यालय एक अलगाव के कगार पर खड़ा है जहां पहले से अलग हो चुके आइआइटी की तर्ज पर आइएमएस को भी अलग कर एम्स बनाने की कवायद चली थी, विज्ञान व कला के बीच के झगड़ों में बढ़ोतरी हुई है और पूरा विश्वविद्यालय एक सुलगते कोयले की खान पर बैठा दिख रहा है जो किसी भी क्षण फूटकर पूरे परिसर को तबाही के कगार पर ला सकता है।
इन सब घटनाक्रम से अप्रभावित शिक्षक समुदाय तटस्थ भूमिका का निर्वहन कर सिर्फ अपने हितों को साधने में लगा हुआ है। लेकिन समाज का सबसे पढ़ा-लिखा और देश के भावी निर्माताओं को दिशा देने वाला तबका इस बात को भूल रहा है कि छात्रों का सम्मान और विश्वास ही किसी शिक्षक की मूल पूंजी होती है और तटस्थता अपराध मानी जाएगी। यह भी तय है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास पर चंद्रग्रहण की तरह लग रहे इन धब्बों की कालिमा को आने वाली पीढ़ी राष्ट्रकवि दिनकर की इन पंक्तियों के आलोक में पढ़ेगी....समर शेष है नहीं दोष का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ थे समय लिखेगा उनका भी अपराध।