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भारतीय गणतंत्र में इंडिया दैट इज भारत वाराणसी के कमलापति त्रिपाठी की देन, हिंदी के लिए हुई थी लंबी बहस

पं. कमलापति त्रिपाठी काशी के नहीं देश के भी गौरव थे। संविधान सभा में उन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपनी मां यानी हिंदी का साथ दिया। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित कराने के साथ ही उन्होंने भारतीय गणतंत्र के नामकरण मामलों में उल्लेखनीय संसदीय भूमिका निभाई थी।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Tue, 26 Jan 2021 08:30 AM (IST)Updated: Tue, 26 Jan 2021 09:31 AM (IST)
पं. कमलापति त्रिपाठी काशी के नहीं देश के भी गौरव थे।

वाराणसी, जेएनएन। पं. कमलापति त्रिपाठी काशी के नहीं देश के भी गौरव थे। संविधान सभा में उन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपनी मां यानी हिंदी का साथ दिया। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित कराने के साथ ही उन्होंने भारतीय गणतंत्र के नामकरण जैसे मामलों में उल्लेखनीय संसदीय  भूमिका निभाई थी। भारतीय गणतंत्र इंडिया दैट इज भारत उन्हीं की देन है।

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दरअसल भारतीय गणतंत्र के नामकरण के मसले पर संविधान प्रारूप समिति ने दुनिया भर में प्रचलित 'इंडिया  शब्द का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया था। वहीं भारत या भारतवर्ष अथवा ङ्क्षहदुस्तान जैसे परंपरा के नामकरण के पक्ष में व्यापक आग्रहों को ध्यान रखकर जो प्रस्ताव सदन में आया। वह संविधान के अनुच्छेद 01 में 'इंडिया दैट इज भारत  के समावेश का आधिकारिक प्रस्ताव था। उस पर एचवी कामथ ने संशोधन पेश करते हुए मात्र भारत या 'भारत जिसका अंग्रेजी  अर्थ 'इंडिया है  रखने का सुझाव दिया। उस पर तीखी बहस हुई। सेठ गोविंद दास ने भी भारत नाम की वकालत की। वहीं पं. कमलापति त्रिपाठी ने अपने भाषण में भारत नाम को समाहित करने के लिए प्रारूप समिति के आभार जताते हुए 'भारत  शब्द को और अधिक महत्व दिए जाने की वकालत की। इस दौरान उन्होंने अपने सारगॢभत भाषण में सांस्कृतिक महत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया। इस पर डा. भीमराव आंबेडकर  ने टोका-टोकी की। यही नहीं उनसे हल्की नोकझोंक भी हो गई। पंडित जी ने आग्रह किया कि 'इंडिया दैट इज भारत की जगह 'भारत दैट इज इंडिया का प्रयोग हो, जिससे अपनी संस्कृति में इस देश के लिये प्रयुक्त रहे इस सनातन परंपरा के नाम की प्रतिष्ठा को वरीयता मिले। ऐसा करना देश के सांस्कृतिक आत्म गौरव के अनुकूल होगा। बहस के बाद अंतत: मतदान के माध्यम से कामथ के संशोधन प्रस्ताव निरस्त हुआ और बहुमत से 'इंडिया  दैट इज भारत के प्रस्ताव को ही स्वीकार किया गया।

हिंदी के पक्ष में अंतिम दम तक खड़े रहे पंडित जी

संविधान निर्माण के समय आधिकारिक भाषा को लेकर देश की नेतृत्व मंडली के बीच मतभेद थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू, उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल, संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव आंबेडकर सहित शीर्ष नेता गण राष्ट्र-भाषा के रूप में हिंदुस्तानी यानी हिंदी-उर्दू मिश्रित आम भारतीयों के बीच प्रयुक्त भाषा की स्वीकृति चाहते थे। दूसरी ओर संविधान सभा और उसके कांग्रेस संसदीय दल के भीतर ही एक सशक्त लाबी हिंदी के पक्षधर थी, जिसका नेतृत्व राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंद दास, पं. कमलापति त्रिपाठी व बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन  सहित अन्य सांसद कर रहे थे।

लंबी बहस के बाद स्वीकार किया गया हिंदी दिवस

 पं. कमलापति त्रिपाठी पर शोध कार्य कर चुके महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के पूर्व राजनीति विज्ञानी प्रो. सतीश कुमार बताते हैं कि राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर 13 एवं 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा में लंबी बहस के बाद ङ्क्षहदी को आधिकारिक भाषा की स्वीकृति मिली। 12 सितंबर को कांग्रेस संसदीय दल में हिंदुुस्तानी व ङ्क्षहदी को लेकर मतभेद के बीच मतदान का फैसला हुआ। खुले मतदान में तय हुआ कि जो हिंदी के पक्षधर हैं। वह राजर्षि टंडन  की ओर और जो ङ्क्षहदुस्तानी के पक्षधर हो, वह प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की ओर खड़े हो जाय। टंडन की ओर जाने के लिए पंडित जी जहां बैठे थे उठ से उठ गए। जैसे ही उन्होंने अपना कदम आगे बढ़ाया कि पं. नेहरू ने उन्हें टोका 'कमला तुम भी। पंडित जी ने कहा जी मैं मां की तरफ हूं। अंत में दोनों खेमों की गिनती हुई, तो हिंदी के पक्ष में एक वोट ज्यादा था। फलत: दूसरे दिन कांग्रेस पार्टी हिंदी के पक्ष में आधिकारिक फैसले के साथ सदन में थी और अंतत: दक्षिण भारत के लोगों की आपत्तियों के बीच कुछ बंधनों के साथ हिंदी  के पक्ष में 14 सितंबर को संविधान सभा का फैसला हुआ। इस प्रकार 14 सितंबर  को हिंदी दिवस  के रूप में मनाया जाता है।

काशी को ही सर्वप्रथम संविधान का अनुवाद प्रकाशित करने का श्रेय

काशी में हिंदी पत्रकारिता व साहित्य परंपरा से जुड़े कमलापति त्रिपाठी राजनीति में देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी की संस्कृति के प्रतिनिधि माने भी जाते थे। पारिवारिक परंपरा के नाते संस्कृत में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। विभिन्न समाचार पत्रों बतौर संपादक भी उन्होंने कार्य किया। यही नहीं उन्होंने बनारस से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'संसार समाचार पत्र में संविधान का हिंदी में अनुवाद कर प्रकाशित कराया। इस प्रकार देश में सबसे पहले संविधान का अनुवाद प्रकाशित करने का श्रेय भी काशी को ही है।


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