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वाराणसी, मीरजापुर और गोरखपुर की लोक संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक कजली गायन

कजली विंध्य क्षेत्र में लोक गायन की ऐसी अद्भुत शैली है जिसका जोर सैकड़ों साल तक बना रहा। इसे बनारस मीरजापुर गोरखपुर की लोक संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक कह सकते हैैं। यह स्त्री प्रधान तथा ऋतु गीत है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Wed, 25 Aug 2021 08:10 AM (IST)Updated: Wed, 25 Aug 2021 01:50 PM (IST)
वाराणसी, मीरजापुर और गोरखपुर की लोक संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक कजली गायन
मीरजापुर में कार्यक्रम में कजली गाती गायिका अजीता श्रीवास्तव।

मीरजापुर, सतीश रघुवंशी। सईयां बसे जाइ परदेसवा, सनेसवा त नाहीं अइलें सजनी, सखियां..। सईयां के करनवां बनली जोगिनिया, अपने ही घरवां में भइली बेगनियां...। संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित गायिका अजीता श्रीवास्तव ने मंगलवार को जब यह गीत गुनगुनाया तो कजली की मिठास से सुनने वाले भींग गए। मां विंध्यवासिनी अर्थात कज्जला देवी के जन्मोत्सव में गाया जाने वाला गीत है कजली। कजली त्योहार भादों मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया को मां विंध्यवासिनी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। दूज की सारी रात पूरे मीरजापुर में जगह-जगह कजली गाई जाती है।

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अजीता ने बताया कि कजली विंध्य क्षेत्र में लोक गायन की ऐसी अद्भुत शैली है जिसका जोर सैकड़ों साल तक बना रहा। इसे बनारस, मीरजापुर, गोरखपुर की लोक संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक कह सकते हैैं। यह स्त्री प्रधान तथा ऋतु गीत है। एक वक्त था जब सावन में यहां दिन-रात कजली गाई जाती थी। कजली दंगल होते थे, जिन्हें सुनने के लिए आसपास के जिलों से लोग आते। जीतने वाला मालामाल होकर लौटता। समय बदला और अनेक कारणों से यह प्रथा विलुप्त होने की ओर है।

कजली का स्वर्ण युग भारतेंदु काल : भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में सर्वाधिक कजली लिखी, गाई और सुनी गई। इसे कजली का स्वर्ण काल भी कहते हैैं। वर्तमान में कजली सिमटकर पूर्वांचल या कहें मीरजापुर-वाराणसी तक सीमित रह गई है। यहां की कजली काफी प्रसिद्ध है। देश के अनेक शास्त्रीय व उपशास्त्रीय गायकों व वादकों ने इस सुमधुर विधा को अपनी गायन शैली में शामिल किया और रागों में पिरोया।

बनारस से अलग है मीरजापुर की कजली

फिल्मों में भी कजली को शामिल किया गया है। बनारस की कजली में अधिकतर खड़ी बोली का प्रयोग तथा शास्त्रीय संगीत का पुट होता है। किंतु मीरजापुर की कजली में लोकभाषा, स्थानीय व गंवई भाषा को ज्यादा जगह मिली है। बनारसी कजली 'झूला धीरे से झुलाओ बनवारी, अरे सांवरिया से मीरजापुर की कजली 'हम त गंवई क गुजरिया, तू बलमुआ हो शहरी काफी अलग हो जाती है।

कजली की प्रमुख परंपरा 

कजली तीन तरह से पुष्पित पल्लवित हुई। पहला-ग्रामीण परिवेश में मौखिक परंपरा जिसमें दादी, नानी, चाची से सुने हुए लोक संगीत के रूप में। दूसरा-शास्त्रीय संगीत के घरानों की भांति कजली में अखाड़े हुआ करते थे, जिसमें कभी-कभी तीन पीढिय़ां एक ही मंच पर गाती थीं। इस तरह यह परंपरा एक से दूसरी पीढ़ी तक जाती थी। तीसरा-शास्त्रीय व उपशास्त्रीय गायकों व वादकों ने कजली की मधुरता से आकृष्ट होकर इसे अपनी गायकी में शामिल कर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई।


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