जयंती विशेष : काशी की नींव से मजबूत हुए थे पद्मश्री बाबूकोडि वेंकटरामन कारंत
कर्नाटक के बंटवाल ताल्लुक के मांची गांव में पैदा हुए बाबा कारंत का नाटक के प्रति शुरू से ही रुझान था। कम उम्र में ही घर से भाग कर उन्होंने नाटक शुरू कर दिया था।
वाराणसी [शाश्वत मिश्र] : बहुत कम ऐसे कलाकार होते हैं जिनसे उनकी विधा को पहचाना जाए। ऐसा ही एक नाम है बीवी कारंत। रंगमंच विधा में रंग और मंच के अलावा ध्वनि के महत्व को समझकर उसे प्रयोग के धरातल पर सबसे पहले उतारने का काम उन्होंने किया था। और उन्हें इस योग्य बनाया था काशी ने। कर्नाटक के दक्षिणा कन्नड जिले के बंटवाल ताल्लुक के मांची गांव में पैदा हुए बाबा कारंत का नाटक के प्रति शुरू से ही रुझान था। कम उम्र में ही घर से भाग कर उन्होंने नाटक कंपनी में काम शुरू कर दिया था। पेश है इन्हीं पहलुओं को समेटती शाश्वत मिश्रा की विशेष रिपोर्ट-
गुरु ने हिंदी सीखने भेजा था बनारस : बाबा कारंत के गुरु गुब्बी वीरन्ना ने ङ्क्षहदी सीखने की उनकी इच्छा को देखते हुए उनको स्तातक और स्नातकोत्तर के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजा। यहां उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों से हिंदी सीखी। पढ़ाई के दौरान पंडित ओंकार नाथ ठाकुर भी विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे थे। उनसे ही बाबा कारंत ने हिन्दुस्तानी संगीत का प्रशिक्षण लिया और इसी शिक्षा का उन्होंने जीवनभर अपने नाटकों में प्रयोग किया।
सबसे ज्यादा भारतेंदु और प्रसाद के नाटक किए : कारंत भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद से बहुत प्रभावित थे। एक बार बातों ही बातों में उन्होंने कहा था कि प्रसाद और भारतेंदु मेरे लिए मूल धन हैं। मैंने सबसे ज्यादा इन्हीं के नाटक किए। शुरू में उन्होंने जयशंकर प्रसाद की कई रचनाओं को रंगमंच पर उतारा था। इसमें भी स्कंदगुप्त उनका प्रिय था। उन्होंने इसके दर्जनों शो किए थे। उनका मानना था कि जयशंकर प्रसाद की रचनाएं हर दौर में महत्वपूर्ण रहेंगी।
प्रसाद के नाटक के लिए श्रम चाहिए : एक बार उन्होंने कहा था कि प्रसाद का नाटक मंचीय नहीं है। हालांकि बाद में उन्होंने इस पर सफाई भी दी। कहा, जब बीएचयू से जाने के बाद एनएसडी में मैंने प्रसाद के पांच-छह नाटक किए तब मेरा भ्रम दूर हुआ। उनका मानना था कि प्रसाद के नाटक मंचित करने के लिए श्रम चाहिए, आसक्ति चाहिए और यह अन्य लोगों में नहीं होती।
अधूरी रह गई बीएचयू में थीसिस की योजना : कारंत ने बीएचयू में पढ़ाई के दौरान भारतीय रंगमंच और हिंदी नाटक पर थीसिस लिखने का मन बनाया था। विश्वविद्यालय में उनके गाइड थे डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा। पर अपरिहार्य कारणों से उन्होंने थीसिस जमा नहीं की।
-बीएचयू में पढ़ाई के बाद 1962 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
-1977 मे एनएसडी के निदेशक बने। -1981-86 तक भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक रहे।
-1989 में कर्नाटक सरकार के निमंत्रण पर बेंगलुरु में रंगायन संस्था कायम की। -पत्नी प्रेमा कारंत के साथ बेनका (बेंगलोर नगर कलाकार) नामक रंग संस्था भी कायम की।
-कन्नड, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, तेलूगु, मलयालम भाषा के सौ से ज्यादा नाटकों का निर्देशन किया।
-सबसे ज्यादा जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंचित किया।
-चार फीचर और चार डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्देशन किया।
-लगभग दो दर्जन फिल्मों में संगीत दिया है।
नाम-बाबूकोडि वेंकटरामन कारंत
जन्म-19 सितम्बर 1929
निधन-1 सितम्बर 2002
मुख्य सम्मान : पद्मश्री, कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी सम्मान, गुब्बी वीरण्णा सम्मान, सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ फिल्म संगीत का राष्ट्रीय पुरस्कार।
उपनाम-लोग बाब बुलाते थे