Janaki Ballabh Shastri Birth Anniversary : जानकी वल्लभ शास्त्री को दिनकर के समतुल्य कवि मानते थे निराला
महान रचनाकार जानकी वल्लभ शास्त्री (जन्म 5 फरवरी 1916 गया (बिहार) निधन -- 7 अप्रैल 1911 मुजफ्फरपुर) की कविता का यह संक्षिप्त अंश रामधारी सिंह दिनकर का स्मरण कराता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जानकी वल्लभ को दिनकर के बराबर का कवि मानते थे।
वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]। असह सहो दृढ़ प्राण बनाओ, अश्रुकणों को गान बनाओ, जब सुख छिटके चंद्र किरण बन, सजल नयन झुक, चुप हो जाओ! महान रचनाकार जानकी वल्लभ शास्त्री (जन्म 5 फरवरी 1916, गया (बिहार), निधन -- 7 अप्रैल 1911 मुजफ्फरपुर) की कविता का यह संक्षिप्त अंश रामधारी सिंह दिनकर का स्मरण कराता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जानकी वल्लभ को दिनकर के बराबर का कवि मानते थे। वर्ष 1936 में निराला ने एक पत्र में शास्त्री जी से कहा कि आप बिहार के कवियों में दिनकर के समकक्ष ठहरते हैं। यह भी संकेत किया कि इस पत्र की चर्चा कहीं और मत कीजिएगा। तुमको मैं दिनकर के मुकाबले खड़ा करूंगा और देखता हूं कि तुम्हें कौन रोक सकता है। बिहार के मुजफ्फरपुर में गरीबी में अपने जीवन की शुरुआत करने वाले वल्लभ को कहा गया कि जाओ बीएचयू से शास्त्री की उपाधि लेकर आओ तभी भाग्योदय होगा। बीएचयू में ङ्क्षहदी विभाग के आचार्य व कवि श्रीप्रकाश शुक्ल बताते हैं कि उस समय शास्त्री की उपाधि लेने में लोग जीवन के 36 बरस पार कर जाते थे। मगर, शास्त्री जी ने महज 18 वर्ष में बीएचयू में संस्कृत विभाग से आचार्य की उपाधि ले ली थी।
निराला से बीएचयू में हुए प्रेरित
प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने शास्त्री और निराला जी के पत्राचार का अध्ययन कर बताया कि अध्ययनकाल के दौरान 1935 में संस्कृत भाषा में काकली नाम से शास्त्री जी की कविता संग्रह का प्रकाशन हुआ। इसी के बाद से जानकी वल्लभ के रूप में एक महान हिंदी व संस्कृत साहित्यकार का उदय हुआ। दरअसल, लखनऊ में निराला ने जब यह कविता पढ़ी तो मुग्ध होकर तत्काल बनारस आ गए। उस समय की मशहूर पत्रिका माधुरी के संपादक रूप नारायण पांडेय से शास्त्री की तारीफ करते हैं। फिर शास्त्री जी को खोजते-खोजते वह बीएचयू पहुंचे और उनसे मिलकर प्रभावित हुए। उसी वक्त शास्त्री जी ने निराला पर ही एक लंबी कविता लिख डाली, जिसको पढऩे के बाद वह उनके समीप आ गए। निराला ने ही उन्हे संस्कृत के साथ हिंदी में कविता रचने के लिए प्रेरित किया था, जिसके बाद उन्होंने हिंदी में रूप-अरूप नाम से 1939 में अपना पहला कविता संग्रह प्रकाशित करवाया। इसके बाद वह आठ दशक तक हिंदी गीत व साहित्य के सम्राट बनकर चमकते रहे। निराला का प्रभाव इतना था कि 1935 में अपनी लिखी कविता राम की शक्ति जब शास्त्री को भेजी तो वह उसे रट लिए और जीवनपर्यंत उनकी इस कविता को गाकर ही अपने काव्यपाठ की शुरुआत करते थे।
महामना भी थे शास्त्री उपाधि के हिमायती
जानकी वल्लभ शस्त्री वर्ष 1932 से 38 तक बीएचयू में रहे और महामना ने उन्हें आगे बढऩे और बेहतर भविष्य बनाने का मार्ग प्रशस्त किया था। इसका जिक्र उन्होंने एक साक्षात्कार में वर्ष 2007 में ही किया था। पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनकी प्रतिभा और ऋषि तुल्य ज्ञान को देखकर कम समय में शास्त्री की उपाधि प्रदान कर दिए जाने की हिमायत की थी।