Ganga को श्रद्धा के साथ घर बुलाने का आमंत्रण पर्व, काशी के तमिल मोहल्ले का खास दीपोत्सव
काशी केदारेश्वर के पाश्र्व में बसे हनुमान घाट मोहल्ले की गलियों की तमिल बस्ती दीपावली की पूर्व प्रात (नरक चतुर्दशी) की अलस भोर से ही बस एक प्रश्न से गूंज रही होती है...गंगा स्नानम्वाच्या... (गंगा स्नान किया क्या)। यह महज एक जिज्ञासा नहीं बल्कि अनिवार्य लोकाचारी रस्म है।
वाराणसी [कुमार अजय]। काशी केदारेश्वर के पाश्र्व में बसे हनुमान घाट मोहल्ले की गलियों की तमिल बस्ती दीपावली की पूर्व प्रात: (नरक चतुर्दशी) की अलस भोर से ही बस एक प्रश्न से गूंज रही होती है...गंगा स्नानम्वाच्या... (गंगा स्नान किया क्या)। यह महज एक जिज्ञासा नहीं, बल्कि अनिवार्य लोकाचारी रस्म है, जो अभ्यंग स्नान के पश्चात हर मिलने वाले से पूछना ही पूछना है। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि काशी में गंगा तट पर बसी दक्षिणार्थ बस्ती में तो इस प्रश्न की सार्थकता समझ आती है। अलबत्ता यहां से हजारों मील दूर समुद्र तट पर बसे तमिलनाडु के हर शहर हर गांव में यही प्रश्न पर्व की मुख्य रस्म बन जाता है।
पर्यावरण की प्राणदायिनी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित मां गंगा के प्रति दक्षिण भारतीय बंधुओं की आस्था की गहराई की थाह बताता है। नगर के तमिल भाषी समुदाय के मुताबिक प्रकाश पर्व दीपावली दक्षिण भारत में जहां ऐश्वर्य लक्ष्मी को रिझाने का पर्व है, वहीं मातु गंगा को घर पधारने का न्योता पठाने का भी त्योहार है। दीपोत्सव के इस महा-अनुष्ठान को संपादित करने के लिए हल्दी-कुंकुम व रक्षा सूत्र से सुसज्जित जिस जल पूरित हंडे को भटठी पर चढ़ाया जाता है, उसके अभिमंत्रित जल को गंगा से अधिवासित मानकर सभी को पुण्य स्नान कराया जाता है।
स्वर्णमयी अन्नपूर्णेश्वरी के दर्शन का विधान
दीपोत्सव की शाम दीपदान से पूर्व सुबह नूतन वस्त्र व अभूषणों से सज्जित होकर अपने ईष्ट देवों सहित माता अन्नपूर्णेश्वरी के स्वर्ण प्रतिमा के दर्शन का दक्षिण में बड़ा महात्म्य है, जो वास्तव में हरितिमा से सज्जित शस्य श्यामला धरती के पूजन का ही एक प्रतीक है। काशी के अन्नपूर्णेश्वरी दरबार में तीन दिनों के लिए प्रतिष्ठित देवी के स्वर्ण विग्रह के दर्शनार्थ हर दीपावली को हजारों-हजार दक्षिण भारतीय तीर्थ यात्री इस सुयोग के लिए ही काशी आते हैं। अशक्तजनों के लिए हनुमान घाट के कांची मंदिर में भी जगद्गुरु शंकराचार्य की ओर से देवी अन्नपूर्णा के इसी स्वरूप की एक प्रतिमा स्थापित की गई है।
व्यंजनों की थालें, रंगोली के रिसाले
दीप पर्व पर महालक्ष्मी के प्रित्यार्थ मैसूर पाक (मिठाई), सेवै (सेव), बज्जी (पकौड़े), मुर्कु (जलेबी) व पेंगोयल जैसे पारंपरिक व्यंजनों की थालें सजाने व आटे, हल्दी, गेरू जैसे प्राकृतिक तत्वों से रंगोली रचकर उसे दीपों से सजाने की भी परंपरा है। अतिथियों के स्वागत में व्यंजनों के परिवेषण (परोसने) के पूर्व प्राकृतिक औषधियों व मसालों से तैयार चूर्ण खिलाने और उनके आरोग्य की शुभकामना करने, कराने का चलन त्योहार को आरोग्य पर्व का भी स्वरूप प्रदान करता है।
पटाखों का शोर नहीं, मशालों का कारवां
दक्षिण भारतीय परंपराओं के मर्मज्ञ डा. राधाकृष्ण गणेशन बताते हैं कि पर्व की शास्त्रोक्त परंपराओं में अतिशबाजी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। कर्ण कटु यह प्रथा लौकिक रूप में कब त्योहारों के रस्म में शामिल हो गई, पता नहीं। हां, पर्व की शाम को देवालय परिसरों में ही भ्रमण करने वाली देव-विग्रहों की शोभायात्रा में देर तक भभकने वाली मशालें जलाकर दैवीय आभा की छवि रचने की रस्म पुरानी है। काशी की दक्षिण भारतीय बस्ती में भी बहुत दिनों तक शोभा यात्राओं का चलन था, जिसका क्रम अब भंग हो चुका है।