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बहाना मौज लूटने-लुटाने का : बनारस के मस्त मलंग, जब निकलते थे 'बहरी अलंग'

क्या अमीर और क्या गरीब हरियाली मस्ती लूटने- लुटाने की गरज से बहरी अलंग बनारसी अंदाज में कहें तो शहर से दूर कहीं निरल्ले (एकांत) की ओर निकल जाता था।

By Vandana SinghEdited By: Published: Fri, 14 Jun 2019 02:22 PM (IST)Updated: Sun, 16 Jun 2019 08:04 AM (IST)
बहाना मौज लूटने-लुटाने का : बनारस के मस्त मलंग, जब निकलते थे 'बहरी अलंग'

वाराणसी, जेएनएन। का हो बचानू बोरा में गोहरी बंधायल...। खदेरुआ रे, बुटवल क कुप्पा आयल...। अरे गुरु चीनी क बोइयाम हौ, ओहके मरचा के अचार से कगरी हटावा। एक्का में घोड़ी जोते के हौ भैरो चच्चा के बोलवावा...। फौजी अंदाज में दनादन कॉशन और हर कॉशन के इशारे पर फौजियों की मानिंद ही टहल बजाते। सावनी फुहार में लथपथ दौड़ते-भागते युवा-किशोरों की जमात। थोड़ी ही देर में राशन-पताई, गोंइठा, पत्तल-पुरवा, हंडिया, पतुकी, दरी-चटाई, मलाई-मिठाई से लदा छकड़ा हरकत में आता है। एक्का तांगा, साइकिल-रिक्शा पर लुंगी-गमछे में डटे जोशीले लोगों का यह जत्था हर-हर महादेव का उद्घोष करते गंतव्य को कूच कर जाता है। किसी को भी हो सकती है गफलत कि यह किसी अभियान की रवानगी है या किसी 'रण' की बारी है। मुतमईन रहें जनाब, ये हैं बनारसी मस्त मलंग, जिनकी बहरी अलंग की तैयारी है।

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स्मृतियों के झरोखों के जरिए सामने आया यह दृश्य अभी कोई दो दशक पहले तक शहर के किसी टोले-मोहल्ले के लिए आम हुआ करता था। सावनी मेघों ने आकाश में अंगड़ाई ली नहीं कि तंग गलियों में बसे बनारस का 'मूड' चटपट हरियर-हरियर हो जाता था। क्या अमीर और क्या गरीब, हरियाली मस्ती लूटने- लुटाने की गरज से 'बहरी अलंग', बनारसी अंदाज में कहें तो शहर से दूर कहीं निरल्ले (एकांत) की ओर निकल जाता था।

जहां तक मस्ती की बात है तो यह नायाब आइटम तो अड़भंगी बाबा विश्वनाथ की नगरी के बाशिंदों को धरोहरी उपहार के रूप में हासिल है। रही बात पर्यावरण प्रेम की तो यह उसका चारित्रिक संस्कार है। कभी वन-उपवन की नगरी आंनद कानन के नाम से मशहूर इस नगरी की वानिकी भले ही समय के सामने थक-हार कर उकठ गई हो। वनों की हरियाली की जो जड़ें उसके संस्कारों की जमीन में गहरे तक पैठी हैं, वह तमाम रूखे-सूखे के बाद भी निपट 'हरियर' हैं। हरीतिमा के नजदीक जाने, पर्यावरण से नेह लगाने के लिए बनारसी मनई चौबीसों घंटे 'खलियर' है। न्योता देकर तो देखिए, बात हरियाले बहरी अलंग के सैर-सपाटे की आई तो बनारसी मन आयोजन तो दूर आयोजक के निमंत्रण पर ही फिदा हो जाएगा। सौ जरूरी काम छोड़ 'बहरी अलंगÓ की तयशुदा ठीहे की ओर विदा हो जाएगा।

शहर के बुजुर्गवारों को आज भी याद है हरियाले सावन और कार्तिकी सिहरावन के दौर की वे मदमस्त महफिलें जब बहरी अलंग के मशहूर ठिकानों (पिकनिक स्पॉट) मसलन सारनाथ, रामनगर, रामेश्वर, शूलटंकेश्वर, वेद व्यास (व्यास नगर), के सार्वजनिक व निजी बाग-बगीचों में सारा बनारस उमड़ आता था। बाटी-चोखा-चूरमाकी सर्जना के लिए दगाए गए अहरों के धुंए से बादलों की बरात का भ्रम पैदा हो जाता था। शहर का दायरा तब इतना तंग था कि नाटीइमली, बेलवरिया (आज रवींद्रपुरी), रथयात्रा, राजघाट, पांडेयपुर आदि क्षेत्र भी बहरी अलंग की कोटि में ही आते थे। महमूरगंज की मोती झील, नाटी इमली की बारादरी, रथयात्रा की तमकुही और शापुरी कोठी में शहर के रईसों की जुटान होती थी। लोग अट्टालिकाओं की घुटन से मुक्त ठहाके लगाते थे। सहभोज की पंगतों के बहाने पर्यावरण से आत्मीयता बढ़ाते थे।

भदैनी कोठी के अधिष्ठाता बाबू गोपाल गोयल कहते हैं- जाड़े और बरसात में काशी के मलंग अक्सर बहरी अलंग की ओर ही कगरियाए रहते थे। दिक्कत होती थी आग बरसाते ग्रीष्म के मौसम में। ताप लहर की किलेबंदी को तोड़कर बहरी अलंग की पहुंच प्राय: दुष्कर हो जाती थी, मगर गुरु लोग तो गुरु ठहरे। बहरी अलंग तक जाने में दिक्कत पेश आई तो पर्यावरण को ही घर बुलाने लगे। हरियाली रंगत से गुलाबी रंग की युगलबंदी के बीच कोठियों के आंगन में गुलाबबाड़ी की महफिलें सजाने लगे। तीन महीनों तक 'बहरी अलंगÓ का सिक्का भीतरी अलंग की टकसाल में ढलता था। हरियाली आंगन की मेहमान बनती थी। चइती के साथ सावनी गीतों के घालमेल से मिजाज में एक अलग तरह का मौसम नन्हें पखेरू की तरह उमंगी उड़ानें भरता था।

कविवर बद्री विशाल कहते हैं कि बाहरी अलंग एक चस्का है जो बनारसियों के मूल चरित्र और स्वभाव के साथ हमेशा -हमेशा के लिए चस्पा है। इस चस्के के मूर्त स्वरूप की झांकी के लिए वे बनारसीपन के जीवंत प्रतिमान रहे तबला सम्राट दिवंगत पंडित किशन महाराज की मिसाल देते हैं। जो भले ही सात समंदर पार रहें, सावन की आमद की आहट के साथ ही अकुताने लगते थे। किसी भी बहाने जहाज पकड़ते थे और कबीरचौरा आ धमकते थे। सावन की पहली फुहार पड़ी नहीं कि गुरु अपने यार भैरो सरदार को हांक देते थे। तुरंत घोड़ी के कंधों पर एक्के की जुआठ और मस्त मलंग बहरी अलंग की ओर निकल लेते थे।

 कहते हैं कवि धूर्त बनारसी कोई रहे न रहे 'बहरी अलंग' बनारसियों की रगों में अहर्निश दौड़ता रहेगा। दुनिया भले ही गौरैया से 'ललमुनिया चिरई' हो जाए बनारसी मन जब भी अकुलाएगा, सोए से जागेगा अलमस्त बनारसी ललका गमछा डाट सीधे बहरी अलंग की ओर भागेगा।

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