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Hindi Diwas 2021 : लोकभाषाओं की रक्षा के लिए वाराणसी, बीएचयू और हिंदी विभाग का एक रिश्ता

बनारस बीएचयू और हिंदी का एक अनिवार्य रिश्ता बनता है जिसके केंद्र में बीएचयू का हिंदी विभाग ही है। इसे देश का पहला व्यवस्थित पाठ्यक्रम प्रस्तुत करने का गौरव हासिल है। हिंदी विभाग अपना सौ साल पूरा कर रहा है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Tue, 14 Sep 2021 07:48 PM (IST)Updated: Tue, 14 Sep 2021 07:48 PM (IST)
Hindi Diwas 2021 : लोकभाषाओं की रक्षा के लिए वाराणसी, बीएचयू और हिंदी विभाग का एक रिश्ता
बीएचयू स्थित हिंदी विभाग का हिंदी भवन

वाराणसी, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल। भाषा के विकास का मतलब असल में हिंदी के साहित्य, विचार व संवाद के भाषाई रूपों के विकास से है। इसमें भाषाई विविधता के साथ भाषाई वर्चस्व से बचने की कोशिश हो और साथ ही हिंदी भाषा के बुनियाद में अवस्थित लोकभाषाओं की रक्षा भी हो सके। इस दृष्टि से बनारस, बीएचयू और हिंदी का एक अनिवार्य रिश्ता बनता है, जिसके केंद्र में बीएचयू का हिंदी विभाग ही है। इसे देश का पहला व्यवस्थित पाठ्यक्रम प्रस्तुत करने का गौरव हासिल है। यद्यपि तिथिवार इसकी स्थापना कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की स्थापना के दो वर्ष बाद 1920 में होती है। जब 1920 के सितंबर महीने में बाबू श्याम सुंदर दास यहां के पहले अध्यक्ष के रूप में अपना योगदान देते हैं। ये विमल बीए पास थे और हिंदी की उन्नति के लिए 1893 में स्थापित काशी नागरी प्रचारिणी सभा के तीन संस्थापकों में एक थे, जबकि अन्य के नाम राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह थे।

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कहना न होगा कि इसी बनारस में भारतेंदु हरिश्चंद्र से हिंदी आरंभ हुई, जिसे उन्होंने 1873 में ‘हिंदी नई चाल में ढली‘ के रुप में लक्षित किया। नागरी प्रचारिणी सभा से होते हुए तब के हिंदी विभाग के नव नियुक्त शिक्षकों तक पहुंची जो पहले से ही सभा के संपादन कार्य से से जुड़े रहे। इस दृष्टि से लाला भगवान दीन, बाबू श्याम सुंदर दास व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का योगदान अप्रतिम है। इन तीनों ने हिंदी भाषा व साहित्य के शिक्षण के लिए न केवल शानदार पाठ्यक्रम तैयार किया बल्कि उस पर भाष्य व टीकाएं भी लिखीं जिससे छात्रों को हिंदी पढ़ने में कोई दिक्कत न हो। दीन साहब ने रामचंद्रिका, कवितावली के साथ बिहारी सतसई पर टीकाएं लिखीं और साथ ही काव्यशास्त्र के अध्ययन का मार्ग भी खोला। बाबू श्याम सुंदर दास ने हिंदी पाठ्यक्रम के अभावों की पूर्ति के लिए कोश, इतिहास, भाषा विज्ञान के पाठ्यक्रम तैयार किए जिसमें कबीर ग्रंथावली, साहित्यालोचन, गद्य कुसुमावली, हिंदी भाषा व साहित्य, नागरी वर्णमाला जैसी पुस्तकों ने ऐतिहासिक कार्य किया। इस क्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ’हिंदी साहित्य का इतिहास’, जायसी, रस मीमांसा, चिंतामणि आदि पुस्तकें लिखकर हिंदी को न केवल विचार संपन्न बनाया बल्कि इसके लोक मंगल, जन जागरण और भाषाई सामर्थ्य की शिनाख्त भी की।

इसी विभाग से जुड़कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर, सूर साहित्य, नाथ साहित्य जैसी आलोचना पुस्तकें लिखकर हिंदी के पाठ्यक्रम को अभिनव स्वरुप दिया, जिस कारण उन्हें तमाम तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ा। इसी समय में नामवर सिंह ने ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ लिखकर एक शोधार्थी के रूप में हिंदी को नया आयाम दिया। इंहीं लोगों द्वारा प्रस्तुत पाठ्यक्रम को पूरे देश के हिंदी विभागों ने सहजता और पूरे गौरव से अपनाया। इसी समय में हरिऔध जी, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, नंद दुलारे बाजपेयी ने भी अपनी सक्रियता से हिंदी को नई ऊंचाई दी, जिसका विकास आगे की पीढ़ी में भोला शंकर व्यास, शिव प्रसाद सिंह, शुकदेव सिंह, त्रिभुवन सिंह, राम नारायण शुक्ल, काशी नाथ सिंह व चौथीराम यादव से होता हुआ आज तक जारी है जहां आज शिक्षकों की नई पीढ़ी भी बहुत सक्रिय व सक्षम रूप से हिंदी भाषा व साहित्य के विकास के लिए समर्पित है। आज जब हिंदी दिवस की चर्चा हो रही है तब ठीक इसी भादों के महीने में हिंदी विभाग अपना सौ साल पूरा कर रहा है जहां एक शिक्षक के रूप में अपना योगदान देते हुए मुझे भी गौरव बोध हो रहा है।

(लेखक हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और हिंदी विभाग, बीएचयू में आचार्य हैं )


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