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Happy Birthday Mazrooh Sultanpuri : जर्जर आवास देख लोग गुनगुना उठते - 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सेवेरे...'

सन् 1919 में एक अक्टूबर को मजरूह का जन्म आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बा के मोहल्ला सिपाह में हुआ था। इनके पिता पुलिस विभाग में तैनात थे जिन्होंने अपने बेटे का नाम असरार उल हसन खान रखा जो बाद में मजरूह सुल्तानपुरी के रूप में विख्यात हुए।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Thu, 01 Oct 2020 12:00 AM (IST)Updated: Thu, 01 Oct 2020 05:01 PM (IST)
एक अक्टूबर को मजरूह का जन्म आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बा के मोहल्ला सिपाह में हुआ था।

आजमगढ़ (राकेश श्रीवास्तव)। मैं अकेला चला था जानिब-ए-मंजिल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया...। उर्दू शायरी के सम्राट मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी पंक्तियां आज भी उनकी जन्मस्थली निजामाबाद में जीवंत नजर आतीं हैं। समय का पहिया 101 वर्ष तक घूम चुका है, लेकिन उनसे संबंधी सवालों के जवाब 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे...' गीत गुनगुनाते उनके आशियाने की ओर इशारा करते देते हैं। जिले में जन्मे मजरूह का सफर बाल्यकाल के बाद मूल निवास पहुंच 'सुल्तानपुरी' बनने के साथ मंजिल की तलाश में मायानगरी के रास्ते अनंत की ओर बढ़ चला, लेकिन कारवां कमजोर नहीं पड़ा। उनकी सोच के साथ आज भी लोगों के साथ आते रहने से कारवां बनता ही जा रहा है।

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सन् 1919 में एक अक्टूबर को मजरूह का जन्म आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बा के मोहल्ला सिपाह में हुआ था। इनके पिता पुलिस विभाग में तैनात थे, जिन्होंने अपने बेटे का नाम 'असरार उल हसन खान' रखा, जो बाद में मजरूह सुल्तानपुरी के रूप में विख्यात हुए। शताब्दी वर्ष से ज्यादा का वक्त गुजर जाने के कारण बुजुर्ग भी उनके बचपन की यादें समेट नहीं पाते हैं। हालांकि, मजरूह साहब के कारवां में आज भी अनगिनत लोग शामिल हैं। उनका आशियाना जरूर उनकी यादें ताजा करा रहा है, जहां उन्होंने जन्म लिया था। उम्र का सैकड़ा ठोंक चुके होने के कारण आवास भले ही जर्जर हो गया, लेकिन उसके प्रति लोगों में आज भी अपार श्रद्धा है। मोहल्ला सिपाह के 88 वर्षीय मो. शरीफ साहब व 80 वर्ष के गुलाम जिलानी अंसारी ने बताया कि मजरूह साहब का जन्म एवं बाल्यकाल यहीं बीता था। हालांकि, दोनों ही बुजुर्ग उनसे जुड़ी कोई यादें बांट नहीं सके। उनके बारे में सवाल करने पर उनके आवास की ओर इशारा करते हुए गुनगुनाए कि चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे...। कहा, साहब हम दोनों तो मजरूह साहब के अनंत की ओर बढ़ चले कारवां में हम शामिल हैं। कामरेड एडवोकेट जितेंद्र हरि पांडेय ने कहा कि मुझे इस धरती पर गर्व है, जिस पर मजरूह साहब ने जन्म लिया। उसके पड़ोस वाले गांव में हम सब रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए देश, समाज और साहित्य को नई दिशा दी। वह हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार और प्रगतिशील आंदोलन उर्दू के सबसे बड़े शायरों में से एक थे। उनकी पंक्तियां 'मैं अकेला चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया..' आज भी जीवंत हैं। 101 वर्ष का वक्त गुजर जाने के बाद भी उनके सोच को अपनाकर लोग उनके कारवां में शामिल हो रहे और उनके सफर को मंजिल मिलती जा रही है। मजरूह साहब एक विचार थे, जिसे कलम से शब्दों का रूप देने पर संदेश देने वाली शायरी, गीत रच जातीं थीं। बाल्यकाल बीतते-बीतते वह अपने मूल गांव सुल्तानपुर के गजेहड़ी गांव जा पहुंचे। विचारों को रचनाओं का रूप देते हुए सुल्तानपुरी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। वह कम्युनिस्ट आंदोलन से भी कुछ सालों तक जुड़े रहने के कारण दूसरी गतिविधियों से दूर रहते थे। एक मुशायरे में मुंबई पहुंचे, जहां इनको सुनकर प्रोड्यूसर एआर. कारदार इतने प्रभावित हुए कि उनके गुरु जिगर मुरादाबादी के पास जाकर सिफारिश की कि मजरूह हमारी फिल्मों के लिए गीत लिखें। उस समय मजरूह ने इंकार कर दिया था, लेकिन बाद में गीत व शायरी उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। सन् 1945 में 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे' और 1946 में 'जब दिल ही टूट गया' से मजरूह सुल्तानपुरी की खूब प्रसिद्धि हुई थी। 24 मई 2000 को अनंत मंजिल की ओर बढ़ चले।


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