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लोक मिजाज के बीच बीत गई वसंत पंचमी, सुनाई नहीं दिया फ‍िजा में फाग के राग

इन दिनों वाहनों से बजते होली गीत फाल्गुन मास का आगमन होने की सूचना देते हैं। इस सूचना के साथ ही इन होली गीतों के बोल ऐसे कि गुजरती महिला सिर नीचे कर लेती है तो सपरिवार कोई पुरुष इन गीतों को अनसुना करना ही बेहतर समझता है।

By Abhishek sharmaEdited By: Published: Sat, 27 Feb 2021 07:40 AM (IST)Updated: Sat, 27 Feb 2021 07:40 AM (IST)
लोक मिजाज के बीच बीत गई वसंत पंचमी, सुनाई नहीं दिया फ‍िजा में फाग के राग
इन दिनों वाहनों से बजते होली गीत फाल्गुन मास का आगमन होने की सूचना देते हैं।

मऊ [अरविंद राय]। इन दिनों वाहनों से बजते होली गीत फाल्गुन मास का आगमन होने की सूचना देते हैं। इस सूचना के साथ ही इन होली गीतों के बोल ऐसे कि गुजरती महिला सिर नीचे कर लेती है तो सपरिवार कोई पुरुष इन गीतों को अनसुना करना ही बेहतर समझता है। अब न पारंपरिक होली गीत गाए जाते हैं ना सारी रात चौपाल में कबीर, जोगीरा, चैता और बारहमासा गीतों के बोल सुनाई देते हैं। बीत गई वसंत पंचमी, सुनाई नहीं दे रहा फाग-राग वसंत पंचमी के दिन सुबह मां सरस्वती का पूजन कर शाम को होलिका पूजन कर चिह्नित स्थान पर सुपारी एवं रेंड़ गाडऩे के बाद से ही ग्रामीण अंचलों में फाग प्रारंभ होने की परंपरा रही है।

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होली या फाग गीतों का शुभारंभ कबीर और जोगीरा से होने की प्रथा है। वसंत पंचमी के दिन होलिका स्थापना की परंपरा के साथ ही 'चहका' के अनिवार्य गायन से फाग या फगुआ का शुभारंभ हो जाता है। पुरुष 'आईल वसंती बहार बोलो सारा रारा'तो महिलाएं वसंत के मौसम में केदली खिलने की सूचना यूं देती हैं 'कवने बनवां मोरवा बोले सखी, केदली बने मोरवा बोले हो'। चार ताल में निबद्ध चौताल 'यशोदा तेरे कुंवर कंहाई, करें लरिकाई' के गायन में ऊर्जा, अनुभव और स्वर की एक साथ परीक्षा होती है। भारतीय शास्त्रीय एवं पारंपरिक गीत प्रत्येक मास, ऋतु, वेला एवं आयोजन के लिए पृथक-पृथक हैं। फाल्गुन मास में बारहमासा गीतों के गायन की प्राचीन परंपरा रही है। चैत मास में चैता गीतों में प्रणय निवेदन, विरह गीत एवं हास-परिहास को आधार बनाया गया है। बेहद लोकप्रिय गीत 'अंखिया लाले लाल एक नींद सोवे द बलमुवा' भी आज के दौर के फूहड़ गीतों से अधिक कर्णप्रिय है। द्विगुण और चौगुण में चौताल गाए जाने की परंपरा अब चंद स्थानों तक सिमटी है। चौताल में भाव प्रधान और कुप्रथा पर प्रहार करने वाले जेकर घरे कन्या कुंवारी नींद कइसे आई' सरीखे गीतों की बानगी ही अलग है। फाल्गुन मास के बीतते ही चैत मास में ' रोज-रोज बोल कोइलर संझवां बिहनवां, आज काहें बोल आधी रतिया हो रामा' सरीखे वेदना समेटे गीत प्रमुखता से गाए जाते हैं। पौराणिक, धार्मिक, लोक मान्यताओं एवं लोक कथानकों एवं प्रतीकोंं को गीत में निबद्ध कर गाने की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी। इन गीतों की परंपरा को कायम रखने वाले ग्रामीण कहीं प्रशिक्षण नहीं लेते थे। बस युवावस्था में ही बुजुर्गो संग संगत कर पारंगत होते थे। अब युवा आधुनिक दिखने और गायक रातोंरात धन संचय की राह पर चले तो प्राचीन समृद्ध परंपरा विलुप्त होने लगी है। 

बोले कला प्रेमी

युवा इन पारंपरिक गीतों को सीखने और बुजुर्ग सिखाने को आगे आएं। आज होली गीत के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है। लोक परंपराओं और इनसे जुड़े विभिन्न रस और भाव आधारित गीतों को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है। - प्रमोद राय प्रेमी, प्रांतीय लोक कला प्रमुख। 


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