पिता की जिद ने रामयत्न को बनाया देश का रत्न
जागरण संवाददाता वाराणसी काशी की महान विद्वत परंपरा में प्रो. रामयत्न शुक्ल संपूर्ण देश के रत्
जागरण संवाददाता, वाराणसी : काशी की महान विद्वत परंपरा में प्रो. रामयत्न शुक्ल संपूर्ण देश के रत्न हैं। धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज की प्रेरणा व पिता की जिद ने प्रो. शुक्ल को देववाणी का प्रकांड विद्वान बनाया है। पिता की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने संस्कृत को वरण किया और आज देववाणी संस्कृत ने प्रतिदान में उन्हें पद्मश्री दिलाई।
पद्मश्री सम्मान से अभिभूत संस्कृत के आचार्य प्रो. शुक्ल इस मुकाम पर पहुंचने का श्रेय करपात्री जी महाराज संग अपने पिता स्व. रामनिरंजन शुक्ल को देते हैं। स्मृतियों में खोए प्रो. शुक्ल बताते हैं कि वे भदोही के ग्राम तुलसीकला में 1938 के आसपास प्राथमिक पाठशाला में कक्षा पाचवीं के छात्र थे। गणित और अंग्रेजी में उनकी अच्छी गति थी। इनमें ऊंचे अंक देखते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य आधुनिक शिक्षा दिलाना चाहते थे लेकिन पिता ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने का निर्णय लिया। उनके पिता स्वयं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। पिता की आस्तिकता और संस्कृत के प्रति प्रगाढ़ प्रेम व श्रद्धा ने उन्हें देववाणी की ओर मोड़ दिया। उन दिनों कक्षा पाच से ही संस्कृत शिक्षा दी जाती थी। इसके बाद संस्कृत पाठशाला से मध्यमा कर वे वाराणसी के धर्म संघ शिक्षा मंडल आए और यहां रह कर प्रथम गुरु रामयश त्रिपाठी के सानिध्य में आगे की शिक्षा प्राप्त की। प्रो. शुक्ल ने संपूर्णानंद (वाराणसेय) संस्कृत विश्वविद्यालय से आचार्य व पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और सर्वप्रथम संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय से अध्यापन-कार्य आरंभ किया। प्रो. शुक्ल गोयनका संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य भी रहे। इसके अलावा एक वर्ष तक बीएचयू में वेदांत विषय के अध्यापक रहे। अंतत: संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में व्याकरण विभाग में व अध्यक्ष रहे।
स्वामी करपात्री जी हैं गुरु : आचार्य शुक्ल के अनुसार उनके उच्च शिक्षा के गुरु व्याकरण केशरी पंडित राम प्रसाद त्रिपाठी थे। उन्होंने ही उन्हें संस्कृत व्याकरण में निष्णात कराया। उन्होंने धर्म-सम्राट स्वामी करपात्री जी से वेदांत की शिक्षा प्राप्त की। स्वामी करपात्री जी से आचार्य शुक्ल ने दीक्षा भी ली थी।
स्वामी करपात्री जी ने गुरु दक्षिणा में मागी परवल की सब्जी : प्रो. शुक्ल स्वामी करपात्री जी से संबंधित एक संस्मरण कभी नहीं भूलते। वे बताते हैं कि जब स्वामी जी ने उन्हें दीक्षा दे दी तो उन्होंने गुरु दक्षिणा स्वरूप परवल की सब्जी बनाकर खिलाने को कहा। यह सब्जी उन्हें बहुत पसंद थी। उन्होंने श्रद्धापूर्वक बनाकर यह सब्जी उन्हें खिलाई। वे भावविभोर होकर कहते हैं, 'गुरु जी की ही सद्प्रेरणा है कि आज मैं कुछ प्राप्त कर सका हूं।'
30 वर्षो से लगातार काशी विद्वत परिषद के अध्यक्ष : प्रो. शुक्ल ऐसे विरल विद्वान हैं कि देश की जानी-मानी विद्वत संस्था काशी विद्वत परिषद के लगातार तीस वर्षो से अध्यक्ष हैं। उन्होंने यह पद दर्शन-केशरी प्रो. केदारनाथ त्रिपाठी से ग्रहण किया था।
माध्व सम्प्रदाय के विद्वानों को शास्त्रार्थ में अकेले हराया : प्रो. शुक्ल के अनुसार 1962 में प्रयाग कुंभ के समय माध्व सम्प्रदाय के लोगों ने चुनौती दी कि व्याकरण, न्याय और वेदांत का कोई भी विद्वान आकर शास्त्रार्थ कर सकता है। उनसे शास्त्रार्थ के लिए काशी से कोई भी विद्वान जाने को तैयार नहीं हो रहा था। अपने गुरु आचार्य रामप्रसाद त्रिपाठी के आदेश पर प्रो. शुक्ल वहा गए। उधर से बोलने वाले तीन विद्वान थे और इधर वे अकेले थे। शास्त्रार्थ में काशी का डंका बजा और वे विजयी हुए!
समृद्ध शिष्य परंपरा के लिए समíपत जीवन : प्रो. शुक्ल का जीवन शिष्यों के लिए पूर्णतया समíपत है। स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती, स्वामी गुरुशरणानंद, रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जैसे ख्यात संत इनकी शिष्य-परंपरा में शामिल हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी शकुलधारा स्थित अपने आवास पर छात्रों को पढ़ाना प्रो. शुक्ल की दिनचर्या में सम्मिलित है। कोरोना काल में उन्होंने आनलाइन शिक्षा प्रदान की और लगभग 50 वर्चुअल व्याख्यान दिए।
हताश न हों संस्कृत के छात्र : संस्कृत के छात्रों को दिए संदेश में प्रो. शुक्ल ने कहा कि संस्कृत के छात्र हताश न हों। वे उन्हें देखें। वे स्वयं संस्कृत के ही तो छात्र हैं। आज संस्कृत से ही उन्हें बहुत कुछ मिला है। संस्कृत में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। भारत को विश्व गुरु बनाने में संस्कृत का योगदान रहेगा।
वर्ष 1999 में मिला था राष्ट्रपति पुरस्कार : प्रो. शुक्ल को वर्ष 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार, वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से केशव पुरस्कार, वर्ष 2005 में महामहोपाध्याय सहित अनेक पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। दर्जनों पुस्तकें और लेख व शोध पत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
शास्त्रार्थ समिति के संस्थापक : प्रो. शुक्ल का जन्म 15 जनवरी 1932 में काशी में हुआ था। वर्ष 1961 में उन्होंने संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय में बतौर प्राचार्य का कार्यभार संभाला। वर्ष 1974 में वे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में बतौर प्राध्यापक नियुक्त हुए। वर्ष 1976 में वे संस्कृत विश्वविद्यालय छोड़कर बीएचयू चले गए। हालांकि वर्ष 1978 में व्याकरण विभाग में बतौर उपाचार्य दोबारा उन्होंने कार्यभार ग्रहण किया। संस्कृत विवि से ही वर्ष 1982 में वह प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए। प्रो. शुक्ल उत्तर प्रदेश नागकूप शास्त्रार्थ समिति व सनातन संस्कृत संवर्द्धन परिषद के संस्थापक भी हैं।
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अन्य पुरस्कार व सम्मान
- वर्ष 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार
- वर्ष 2000 में केशव पुरस्कार (उत्तर प्रदेश सरकार )
- वर्ष 2005 में महामहोपाध्याय (श्री लालबहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली)
- वर्ष 2006 में वाचस्पति पुरस्कार (बिड़ला फाउंडेशन, जयपुर)
- वर्ष 2008 भावभावेश्वर राष्ट्रीय (सदगुरुदेव स्वामी अखंडानंद मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट, गुजरात)
- वर्ष 2006 में अभिनव पाणिनी (टीएन चतुर्वेदी राज्यपाल, कर्नाटक)
- वर्ष 2003 में विशिष्ट पुरस्कार (उप्र संस्कृत संस्थान)
- वर्ष 2007 में करपात्ररत्न (धर्मसंघ शिक्षा मंडल)
- वर्ष 1990 में सरस्वती पुत्र पुरस्कार (व्यास आश्रम ऐरूपेड, आंध्र प्रदेश)्र संस्कृत विवि के खाते में दस पद्म पुरस्कार
पद्म भूषण
- पं. राज राजेश्वर शास्त्री द्रविड़
- पं. पट्टाभिराम शास्त्री
- पं. बलदेव उपाध्याय
- प्रो. विद्या निवास मिश्र
- प्रो. देवी प्रसाद द्विवेदी
पद्मश्री
- पं. रघुनाथ शर्मा
- प्रो. वी. बेंकटाचलम्
- प्रो. मंडन मिश्र
- प्रो. रमाशंकर त्रिपाठी
- प्रो. देवी प्रसाद द्विवेदी
- प्रो. रामयत्न शुक्ल