काशी विद्यापीठ की स्थापना स्वतंत्रता आंदोलन की उपज, भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजते ही अध्यापकों को जेल
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ स्वतंत्रता आंदोलन की उपज है। विद्यापीठ स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केंद्र रहा। राष्ट्रीय आंदोलनों को विद्यापीठ ने एक नई दिशा व धार दी।
वाराणसी, जेएनएन। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ स्वतंत्रता आंदोलन की उपज है। विद्यापीठ स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केंद्र रहा। राष्ट्रीय आंदोलनों को विद्यापीठ ने एक नई दिशा व धार दी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में वर्ष 1921 में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो प्रो. राजाराम शास्त्री हरिश्चंद्र विद्यालय से पढ़ाई छोड़ कर लाल बहादुर शास्त्री व त्रिभुवन नारायण के साथ काशी विद्यापीठ में पढऩे चले आए।
वहीं नौ अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजते में काशी विद्यापीठ के प्राय: सभी अध्यापकों को एक के बाद एक जेल में ठूस दिया। इसे देखते हुए काशी भारत छोड़ो आंदोलन की कमान छात्रों ने संभाल ली। आंदोलन को कूचलने के लिए 12 अगस्त को काशी विद्यापीठ को राजनीतिक षडयंत्रकारियों की संस्था बताते हुए को सील कर दिया गया था। इसके बावजूद काशी विद्यापीठ आंदोलन की मशाल जलाए रखा। अंतत: डा. संपूर्णानंद, आचार्य वीरबल सिं, प्रो. भगवती प्रसाद पांथरी, विश्वनाथ शर्मा, खुशहाल चंद्र गोरावाला जैन, श्री प्रकाश को एक के बाद एक रिहा करना पड़ा। सबसे अंत में प्रो. राजाराम शास्त्री को रिहा किया गया। प्रो. राजाराम शास्त्री वर्ष 1928 में विद्यापीठ के दर्शन विभाग में अध्यापक हो गए। अध्यापन के साथ-साथ वह राष्ट्रीय आंदोलनों को धार देने का काम किया। इस प्रकार विद्यापीठ में स्वतंत्रता आंदोलन की रणनीति बनाई जाती थी। भारत छोड़ों आंदोलन के अलावा असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन सहित स्वतंत्रता के तमाम आंदोलनों में काशी विद्यापीठ की महत्वपूर्ण भूमिका अहम रही है। वहीं अंग्रेज भारत छोड़ों का संकल्प लेने में गांधी जी केे साक आचार्य नरेंद्र देव की भी पूर्ण सहमति रही। वर्ष 1934 के बाद गांधीवाद के समाप समाजवाद की धारा भी प्रभाहित होने लगी। वर्ष 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा तो कांग्रेस समाजवादी पार्टी के जय प्रकाश नारायण, डा. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरूणा अली सहित प्रमुख नेताओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। इस प्रकार विद्यापीठ को समाजवादियों का गढ़ माना जाने लगा। इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन में देश के चारों विद्यापीठ मुख्य वैचारिकी का केंद्र रहीं है। विद्यापीठों द्वारा संचालित स्वदेशी शिक्षा एवं सरकारी संस्थाओं की शिक्षा के बहिष्कार का परिणाम था कि विद्यापीठों की स्थापना के तीन दशक में ही अंग्रेजी हुकूमत को भारत छोडऩा पड़ा।