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ई हौ रजा बनारस : बरतानवी अत्याचार, काशी की नक्कटैया मेला से गया हार

बरतानवी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ बोलने की कौन कहे, इशारों तक की इजाजत नहीं थी, ऐसे में प्रबुद्धजनों ने एक पारंपरिक उत्सव को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 26 Oct 2018 10:24 PM (IST)Updated: Sat, 27 Oct 2018 04:00 AM (IST)
ई हौ रजा बनारस : बरतानवी अत्याचार, काशी की नक्कटैया मेला से गया हार
ई हौ रजा बनारस : बरतानवी अत्याचार, काशी की नक्कटैया मेला से गया हार

वाराणसी [कुमार अजय] । बात है उस दौर की जब लोगों की जुबान पर पाबंदियों के ताले जड़े हुए थे। कलम की रवानगी पर बैठा दिए गए थे पहरे। बरतानवी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ बोलने की कौन कहे, इशारों तक की इजाजत नहीं थी। ऐसे में काशी के प्रबुद्धजनों ने एक पारंपरिक उत्सव को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उत्सव की शोभायात्रा में शामिल झांकियां संदेशों की संवाहक बनीं और आजादी का आंदोलन बाढ़ के पानी की तरह शहर से गांव तक पसरता चला गया। 

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वे दिन थे 1942 के। अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन जोर पकड़ रहा था, मगर इसकी धार को पैनापन देने वाले साधनों का अभाव आंदोलन के लड़वइयों को हतोत्साहित कर रहा था। शहर से निकलने वाले अखबारों पर पाबंदी थी। भूमिगत प्रकाशनों का प्रभाव और प्रसार क्षेत्र सीमित था। सभा व जुलूस के लिए इजाजत नहीं थी। ऐसे में चारों ओर पसरे सन्नाटे को तोडऩे की गरज से आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने चेतगंज की प्रसिद्ध नक्कटैया को एक सशक्त माध्यम के रूप में उभारने का निर्णय किया। उनकी सोच थी कि शहर से देहात तक की जनता में लोकप्रिय इस विराट मेले में उमडऩे वाली भीड़ तक राष्ट्रीयता का संदेश पहुंचा कर आंदोलन को और प्रखरता दे सकेंगे। हुआ भी ऐसा ही। बाबू संपूर्णानंद, पं. कमलापति त्रिपाठी, बाबू खेदन लाल, श्री प्रकाश जैसे नेताओं और मुंशी प्रेमचंद जैसे कलमकारों की मंत्रणा के बाद मां की पुकार (भारत माता की झांकी), लहू पुकारेगा (कोड़ों की सजा), बलिदान- (जलियांवालाबाग कांड) और चरखवा चालू रहे जैसे शीर्षक वाले लाग, स्वांग व विमान नक्कटैया के जुलूस में शामिल होने लगे। विशिष्ट अतिथि की हैसियत से मेले में शामिल अंग्रेज अफसरों की ऐन नाक के नीचे आयोजित यह उत्सव आजादी के पहले तक बाकायदा अपना काम करता रहा। स्वतंत्रता के बाद भी कई वर्षों तक नक्कटैया का जुलूस अपने लाग-स्वांग के जरिए बाल विवाह, सती प्रथा, नशाखोरी जैसी कुरीतियों पर निर्मम चोट करता जागरण की अलख जगाता रहा। 

बाद में एक ऐसा दौर भी आया जब फूहड़ और भौंड़े स्वांगों की नक्कटैया में घुसपैठ से जनता इस आयोजन से कटती चली गई। अस्सी के दशक में कुछ उत्साही नौजवानों ने चेतगंज रामलीला की बागडोर अपने हाथों में ली और अथक प्रयासों से नक्कटैया के गौरव को पुन: प्रतिष्ठित किया। सबसे पहले फूहड़ गीतों का प्रसारण प्रतिबंधित किया। दूसरी पहलकदमी जुलूस में पैगामी झांकियों की वापसी से हुई। 

परंपराओं की थाती को जतन से सहेज रखा है

चेतगंज रामलीला कमेटी के नव मनोनीत अध्यक्ष अजय कुमार गुप्ता 'बच्चू' कहते हैं- टूट कर बिखर रही परंपरा को हमने से सहेजा है। बीते वर्षों में प्रदर्शित कई पैगामी झांकियों ने काशी के जनमानस व लोक जीवन को अंतस तक छुआ है। इस वर्ष भी 'डूब गई थैली, गंगा मैली की मैली' शीर्षक से सजाई जाने वाली पैगामी झांकी आमजन के मन को झिंझोड़ेगी। बेटी बचाओ व स्वच्छ भारत अभियान जैसे मुद्दों पर भी अनेक झांकियां आएंगी, जागरण की अलख जगाएंगी। 


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