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जो देखा नहीं..बरकरार है अभी 'चिनिया डाक्टर' का जलवा

कुमार अजय .. वाराणसी : सहेजने की कोशिश में बहुत कुछ ऐसा है जो तमाम कोशिशों के बाद भी उ

By JagranEdited By: Published: Thu, 19 Apr 2018 11:04 AM (IST)Updated: Thu, 19 Apr 2018 01:27 PM (IST)
जो देखा नहीं..बरकरार है अभी 'चिनिया डाक्टर' का जलवा
जो देखा नहीं..बरकरार है अभी 'चिनिया डाक्टर' का जलवा

कुमार अजय ..

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वाराणसी : सहेजने की कोशिश में बहुत कुछ ऐसा है जो तमाम कोशिशों के बाद भी उन प्रवासी चीनी परिवारों की मुट्ठी को रेत की तरह छीजता चला गया जो तीस से चालीस के दशक में खाने-कमाने की गरज से पड़ोसी देश चीन से यहां आ कर बसे और फिर यहीं के होकर रह गए। शहर बनारस में इस कुनबे के हर नुमाइंदे की पहचान 'चिनिया डाक्टर' के रूप में है भले ही उसका संबंध चिकित्सा के पेशे से हो न हो। बनारसी बोलचाल की भाषा में 'चिनिया' राग जहां चीन की राष्ट्रीयता का बोध कराता है वहीं इसके साथ जुड़ा 'डाक्टर' शब्द दंत चिकित्सक के उस परंपरागत पेशे का बोधक है जिसमें दक्षता के दम पर इन प्रवासियों ने शहर में अपनी धाक जमाई। दंत चिकित्सा के अलावा इन चीनियों ने बोनसाई शक्ल वाले खूबसूरत चीनी जूतों से भी इस शहर का पहला त आर्रूफ कराया। चटपटे चाइनीज फूड का स्वाद भी चखाया। सौंदर्य के प्रति सजगता के परिचायक ब्यूटी पार्लरों पर आज लगने वाली कतार वास्तव में चीनी मूल के प्रवासियों की ही देन है।

काशी के इंद्रधनुषी रंगों में से एक चटख और शोख रंग की नुमाइंदगी करने वाले चीनी परिवारों की यह कहानी हम सुना रहे हैं डा. जेड सी ल्यू की जुबानी जो स्वयं एक दक्ष चिनियवा डाक्टर हैं। चीनी मूल के होने के बावजूद बनारसी पन में रम जाने वाले एक नायाब करेक्टर हैं। बताते हैं शहर बनारस में कदम रखने वाला पहला चीनी परिवार छी-सेन का था जो 1940 के आस-पास इस शहर में आए। शहर में फैशनेबुल जूतों की पहली दुकान इसी परिवार की थी। इसके बाद चाइनीज रेस्त्रां 'विन-फा' तथा पहले ब्यूटी पार्लर 'ईव्य' की सौगात लेकर डा. ल्यू और डा. चाओ का परिवार आया जो इन दोनों धंधों के अलावा डा. ल्यू और डा. चाओ ने दंत चिकित्सा के परंपरागत कुशलता के दम पर ऐसी साख बनाई कि ये चीनी परिवार शहर के एक खास कोने की पहचान बन गए।

डा. ल्यू याद करते हैं वर्ष 1962 के उस कसैले वाकये की जब भारत और चीन की सरहद पर तल्खी की गरमहाट आ गई। असर सीमा के दोनों ओर गया और अविश्वास के इस माहौल में बहुत से लोग 'इधर से उधर' हो गए। जिनकी सांसों में ¨हदुस्तानी माटी की सोंधी सुगंध रच-बस गई थी उन्होंने तमाम त्रासदियों के बाद भी भारत छोड़ने से इनकार कर दिया। ऐसे ही लोगों में डाक्टर जेड सी ल्यू और डा. चाओ के परिवार भी शामिल थे। बताते हैं डा. ल्यू-1962 के बाद शहर में बचे रह गए छह चीनी परिवारों में से भी तीन परिवार बाद में बेहतरी की आस में शहर छोड़ गए। अब उनके अलावा डा. चाओ अब दिवंगत के बेटे रवींद्र चाओ का परिवार और दंत चिकित्सा क्लीनिक मलदहिया पर है। एक परिवार और नदेसर पर कुनबे का प्रतिनिधित्व कर रहा है।

कुनबे के लगातार विघटन के अलावा डा. ल्यू पेशेगत छीजन पर भी चिंता जताते हैं। कहते हैं 1962 की लड़ाई के बाद ही रूने का परिवार बनारस छोड़ गया चीनी जूतों की शहर की एक मात्र मशहूर दुकान पर ताला चढ़ गया। यहां के विश्वविद्यालयों में चीनी भाषा के विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। वे भी अपने परिवारों के साथ माइग्रेट हो गए। इससे पड़ी त्रासदी और क्या होगी आज जब चाइनीज खान-पान का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। किसी चीनी द्वारा चलाया जा रहा है चाइनीज रेस्त्रां एक भी नहीं है। लहुराबीर के विन-फा और लंका के लॉ-बेला के बंद हुए एक अर्सा बीता। शहर का सबसे पहला ब्यूटी पार्लर खुद डा. ल्यू की पत्नी ने लहुराबीर पर खोला मगर आज जब शहर में गली-गली ब्यूटी पार्लर खुल रहे है, इस पहले पार्लर का वजूद खत्म है। श्रीमती ल्यू खुद पुणे शिफ्ट हो गईं हैं। खुशी डा. ल्यू को बस इतनी है कि दंत चिकित्सा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के चरम के बाद भी चिनियवा डाक्टर का जलवा बरकरार है।

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और भी बहुत कुछ बदला है

डा. ल्यू की मानें तो पेशेगत छीजन के अलावा भाषा और संस्कार भी समय के साथ बदलते गए हैं। छठवीं पीढ़ी की बात तो दूर तीसरी-चौथी पीढ़ी

के किसी भी चीनी का चाइनीज भाषा से अब कोई परिचय नहीं रहा। घरों में चित्र लिपि वाले कैलेंडर लटके है। बधाई पत्र भी आते हैं मगर उनसे अब सिर्फ भावनाओं का ही आदान-प्रदान है। बाद की पीढ़ी जहां जन्मी वहीं की भाषा और संस्कार अपनाती गई। खुद डा. ल्यू बनारस में जन्मे और ¨हदी-अंग्रेजी से ही उनका वास्ता पड़ा। बनारस में प्रचलित खांटी बनारसी बोली 'काशिका' में भी वह धारा प्रवाह बतिया सकते हैं। इसका उन्हें गर्व भी है।

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बाबा भी विराजे कनफ्यूशियस के साथ चीनियों में ज्यादातर चीन के महान दार्शनिक कनफ्यूशियस के अनुयाई हैं। इनके यहां देहांत के बाद समाधि देने और समाधि पूजन की परंपरा है। समुदाय के पास अपना कोई कब्रिस्तान न होने से अब उनके यहां भी श्मशान में दाह संस्कार की रीति अपना ली गई है। पूजा घर में चीनी देवी-देवताओं के साथ अब बाबा विश्वनाथ भी विराजते हैं। स्वयं डा. ल्यू अपनी क्लीनिक पर गणेश-लक्ष्मी की पूजा किए बगैर काम शुरू नहीं करते। वैष्णव देवी की यात्रा भी उनके वार्षिक कैलेंडर का अनिवार्य अंग है।


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