बीएचयू के जीन विज्ञानियों ने ब्रिटिश काल में गढ़े मानव विकास के सिद्धांतों को किया खारिज
प्रो. चौबे कहते हैं कि देशवासियों के मनोबल को तोड़े रखने की मंशा से ही इन जनजातियों को अंग्रेज ढाई दो सौ साल से भारत का मूल निवासी बताते रहे। वहीं देश की सामान्य जातियों और प्रजातियों को विदेशी मूल का निवासी घोषित कर दिया था।
वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]। छोटानागपुर पठार और मध्य भारत की सबसे प्रमुख जनजातियां संथाल, खेरवार, मुंडा, खारिया और काेरकू पांच हजार साल पहले दक्षिण पूर्व एशिया से प्रवास करके भारत आई थीं। इन जनजातियों की कद-काठी, भाषा, रंग-रूपऔर हुलिया नहीं, बल्कि उनके शरीर की कोशिकाओं में मौजूद वाइ क्राेमोसाेम के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है। बीएचयू के मानव विकास विज्ञानी प्राे. ज्ञानेश्वर चाैबे के मार्गदर्शन में हुआ यह शोध नेचर के प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय यूरोपियन जर्नल ह्यूमन जेनेटिक्स में इस सप्ताह के अंक में प्रकाशित हुआ है।
प्रो. चौबे कहते हैं कि इतिहास अमिट है, मगर विज्ञान इसे भी बदल देने की कुव्वत रखता है। देशवासियों के मनोबल को तोड़े रखने की मंशा से ही इन जनजातियों को अंग्रेज ढाई दो सौ साल से भारत का मूल निवासी बताते रहे। वहीं, देश की सामान्य जातियों और प्रजातियों को विदेशी मूल का निवासी घोषित कर दिया था। भारत की बहुसंख्यक आबादी को प्रवासी बनाकर शासन करने में उन्हें एक मानसिक बढ़त मिल गया। प्राे. चौबे के अनुसार देश भर के 1437 लोगों (पुरूषाें) के वाइ क्रोमोसाेम पर यह अनुसंधान हुआ, जिसमें आश्चर्यजनक आंकड़े सामने आए हैं।
लाओस व कंबोडिया में मिले हैं प्रमाण
वाइ क्रोमोसोम के म्यूटेशन के आधार पर यह तय हुआ कि ये हेप्लोग्रुप ओ-2 ए के अंतर्गत आते हैं, जिनका उद्भव 20 हजार साल पहले लाओस और कंबोडिया में हुआ था। उन्होंने आगे कहा कि हमारे अध्ययन से इन जनजातियों के चार पूर्वजों को पता चला है। इनमें दक्षिण पूर्व एशिया से भारत में आए भारतीय आस्ट्रो एशियाटिक के तीन और पूर्वोत्तर के एक प्रजाति के बारे में जानकारी हासिल हुई है।
तब सिंधु घाटी सभ्यता थी चरम पर
अभी तक दुनिया के बहुतेरे मानव विकास व भाषा विज्ञानियों ने इन्हें 65 हजार साल पहले का प्रवासी बताया था। जबकि सिंधु घाटी की सभ्यता जब अपने चरम पर थी, उसी दौरान वे भारत में बंगाल की खाड़ी के रास्ते प्रवेश किए। प्रो. चौबे के अनुसार जिस आबादी में जितनी ज्यादा विविधता होगी, उसमें रोगों से लड़ने की क्षमता उतनी ही ज्यादा होगी। कोविड-19 महामारी को लेकर भी भारत में कम मृत्युदर के पीछे एक कारण यह भी था, जबकि यूरोपीय लोगों में कम विविधता के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम ही विकसित हो पाई। स्विट्जरलैंड स्थित यूनिवर्सिटी आफ बर्न के लिंग्विस्टिक एक्सपर्ट प्रो जार्ज वांड्रिम ने दूरभाष पर बताया कि यह जेनेटिक रिसर्च सर्वप्रथम प्रवास के पथ को सिद्ध कर रही है। इस शोध में प्रथम लेखक प्रज्ज्वल प्रताप सिंह ने बताया कि इस शोध के बाद से भारत में इन जनजातियों के आने का मार्ग और काल दोनों निर्धारित कर दिया गया है। इससे अब गुलाम भारत में गढ़े गए इतिहास की भ्रांतियों का अंत होगा। जनजातियों के वाइ क्रोमोसोम के आधार पर हुए इस शोध ने अब जैविक रूप से सिद्ध कर दिया कि मध्य भारत के इन जनजातियों के पूर्वज दक्षिण पूर्व एशिया से ही आए थे।
"औपनिवेशिक काल में मानव विकास विज्ञान में काफी छेड़-छाड़ किया गया था, लेकिन हर्ष की बात है कि इक्कसवीं सदी में बीएचयू के वैज्ञानिक डीएनए के आधार पर अब उन इतिहास के तथ्यों को दुरुस्त कर रहे हैं।"
- प्रो. वी आर राव, पूर्व निदेशक, एंथ्रोपोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भारत सरकार और एमिरेट्स साइंटिस्ट, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद