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डा. भगवान दास ने देश के लिए छोड़ा डिप्टी कलेक्टर पद, बैद्धिक प्रतिभा के योग से काशी विद्यापीठ की स्थापना

देश की आजादी के लिए डिप्टी कलेक्टर पद को भी छोड़ दिया और असहयोग आंदोलन में सक्रिय हो गए। जबकि उस समय डिप्टी कलेक्टर रूतबा होता था। बावजूद देश हित में वह शुरू से ही सरकारी नौकरी के पक्ष में नहीं थे।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 17 Sep 2021 08:33 PM (IST)Updated: Fri, 17 Sep 2021 08:33 PM (IST)
डा. भगवान दास ने देश के लिए छोड़ा डिप्टी कलेक्टर पद, बैद्धिक प्रतिभा के योग से काशी विद्यापीठ की स्थापना
डा. भगवान दास देश हित में वह शुरू से ही सरकारी नौकरी के पक्ष में नहीं थे।

वाराणसी [अजय कृष्ण श्रीवास्तव]। 12 जनवरी वर्ष 1869 को जन्‍मे डा. भगवान दास का निधन 18 सितंबर 1958 को हुआ था। भारत के पहले भारत रत्न डा. भगवान दास एक महान दार्शनिक व स्वप्नद्रष्टा थे। उन्होंने देश की आजादी के लिए डिप्टी कलेक्टर पद को भी छोड़ दिया और असहयोग आंदोलन में सक्रिय हो गए। जबकि उस समय डिप्टी कलेक्टर रूतबा होता था। बावजूद देश हित में वह शुरू से ही सरकारी नौकरी के पक्ष में नहीं थे। पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने सरकारी नौकरी की।

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वर्ष 1880 से 1898 तक वह आगरा, मैनपुरी व मथुरा जिलों में डिप्टी कलेक्टर रहे। वर्ष 1897 में पिता के स्वर्गवास के बाद उन्होंने डिप्टी कलेक्टर की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र अध्ययन व सामाजिक कार्यों में लग गए। उनकी रुचि राजनीत में कम अध्यात्म व दर्शन में अधिक रहती थी। उनके बौद्धिक प्रतिभा के योग से महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई। यही नहीं वह विद्यापीठ के प्रथम आचार्य यानी और कुलपति बने। दृढ़ निश्चय, अथक प्रयास, अनेक झंझावत व विरोधों का सामना करते हुए विद्यापीठ को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाया। महामना पं. मदन मोहन मालवीय भी समय-समय पर डा. भगवान दास से परामर्श लेते रहते थे। बीएचयू का मोनो भी डा. भगवानदास की कल्पना का देन है।

जन्म संग कर्मस्थली भी रही काशी : विद्वान व दार्शनिक डा. भगवान दास का जन्म 12 जनवरी वर्ष 1869 को काशी के प्रतिष्ठित माधवदास और किशोरी देवी के परिवार में हुआ था। उनके अध्ययन और लेखन की परिधि बड़ी व्यापक थी। 18 वर्ष में एमए कर लिया था। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, वैदिक, पौराणिक साहित्य, दर्शन शास्त्र सहित अन्य विषयों पर गहरी पकड़ थी। कार्यक्षेत्र हमेशा काशी रही। कई वर्षों तक वे केंद्रीय विधानसभा के सदस्य रहे। हिंदी के प्रति अनुराग के कारण कई साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे। विद्यापीठ, नागरी प्रचारिणी सभा-काशी, हिंदी साहित्य सम्मेलन से भी उनका बहुत गहरा संबंध था।

समर्पण के भाव खिंचे चले आते थे लो : बौद्धिक प्रतिभा और प्रगतिवादी सोच की बदौलत ही उन्होंने आचार्य नरेंद्रदेव, श्रीप्रकाश, जेबी कृपलानी, बीरबल सिंह, यज्ञ नारायण उपाध्याय जैसे नामी-गिरामी आचार्यों को विद्यापीठ से जोड़ा। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, पं. कमलापति त्रिपाठी, प्रो. राजाराम शास्त्री आदि उनके प्रमुख शिष्यों रहे। देशभर के छात्र भारतरत्न की निष्ठा, समर्पण के भाव के चलते खिंचे चले आए।

सीएचएस की स्थापना में भी भूमिका : वर्ष 1898 में उन्होंने सेंट्रल हिंदू स्कूल (सीएचएस) की स्थापना में एनी बेंसेंट के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष 1899 से 1814 तक थियोसाफिकल सोसाइटी के संस्थापक सदस्य के साथ आनरेरी सेक्रेटरी (मानद सचिव) के रूप में कार्य किया। वे जीवन पर्यंत विद्यार्थी, अनुसंधानकर्ता व लेखक रहे।

बनारस नगर पालिका के रहे चेयरमैन : वर्ष 1919 में सहारनपुर में उत्तर प्रदेशीय सामाजिक सम्मेलन, 1920 जा में मुरादाबाद प्रांतीय सम्मेलन के सभापति भी बनाए गए थे डा. भगवान दास। 1923 से 24 तक बनारस नगर पालिका के भी चेयरमैन रहे। वहीं वर्ष 1926 से 36 तक मीरजापुर के चुनार में गंगा किनारे एकांतवास करते हुए ऋषियों की भांति भी जीवन जीया।

वर्ष 1955 में मिला भारत रत्न : डा. भगवान दास के पांडित्य को देखते हुए वर्ष 1929 में बीएचयू तथा 1937 में इलाहाबाद विवि ने उन्हें डीलिट की उपाधि से सम्मानित किया था। डा. भगवान दास की अपूर्व समाजसेवा, निष्पक्ष व निर्भीक विचार, त्याग देखते हुए प्रथम राष्ट्रपति डा . राजेंद्र प्रसाद ने वर्ष 1955 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया।

प्रोटोकाल तोड़ राष्ट्रपति ने छूआ पैर : उनके प्रपौत्र बीएचयू के डा. पुष्कर रंजन ने बताया कि भारत रत्न की उपाधि देने के बाद राष्ट्रपति डा . राजेंद्र प्रसाद ने प्रोटोकाल तोड़ते हुए उनका पैर छूकर आशीर्वाद लिया। जब उन्हें प्रोटोकाल याद दिलाया गया तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति होने के कारण डा. भगवान दास को भारत रत्न दिया और सामान्य नागरिक होने के नाते पैर छूकर आशीर्वाद लिया। महान-व्यक्तित्व का 89 वर्ष की आयु में 18 सितंबर 1958 को निधन हुआ।

एक रुपया नहीं ली रायल्टी : उनकी प्रपौत्री डा. नीलांजना किशोर के मुताबिक डा. भगवान दास 32 से अधिक पुस्तकें विभिन्न विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। खास बात यह है कि रायल्टी के नाम एक रुपया भी नहीं लेते थे।

उनके नाम पर केंद्रीय पुस्तकालय : डा . भगवान दास जीवनपर्यंत चिंतन, मनन, लेखन करते रहे। इसे देखते हुए काशी विद्यापीठ परिसर में उनके नाम पर केंद्रीय पुस्तकालय की स्थापना की गई है।

विद्यापीठ में नई प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव : विद्यापीठ प्रशासन ने केंद्रीय लाइब्रेरी के सामने डा. भगवान दास मूर्ति लगवाई थी। एक दशक पहले चोरी हो गई। इसे देखते हुए उनके प्रपौत्र डा. पुष्कर रंजन नई प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव विद्यापीठ को भेजा है।


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