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Air Pollution News: वायु प्रदूषण का गहराता खतरा, घर के अंदर का प्रदूषण भी कम घातक नहीं

Air Pollution News विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वायु प्रदूषण के मानकों को सख्त करने का उद्देश्य वायु प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों से मानवजाति की रक्षा करने के लिए राष्ट्रों से आह्वान करना है। वायु प्रदूषण पूरी दुनिया में एक बड़े जोखिम का स्वरूप अख्तियार कर चुका है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 06 Oct 2021 09:16 AM (IST)Updated: Wed, 06 Oct 2021 09:16 AM (IST)
Air Pollution News: वायु प्रदूषण का गहराता खतरा, घर के अंदर का प्रदूषण भी कम घातक नहीं
वायु प्रदूषण की समस्या को सामूहिक प्रयास से ही नियंत्रित किया जा सकता है। फाइल

सुधीर कुमार। Air Pollution News हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ ने वैश्विक वायु गुणवत्ता के मानकों में डेढ़ दशक बाद बदलाव करते हुए नए दिशानिर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों में पीएम (पार्टकिुलेट मैटर)-2.5 और पीएम-10 के अलावा चार अन्य प्रदूषकों-ओजोन, नाइट्रोजन आक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड और कार्बन मोनोक्साइड की सालाना औसत सीमा पर भी कड़ाई बरती गई है। 1987, 2000 और 2005 के बाद यह चौथी बार है, जब इस वैश्विक संस्था ने हवा में घुलते जहर के नए और पहले की तुलना में कठोर पैमाने तय किए हैं।

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डब्ल्यूएचओ की नई गाइडलाइंस के मुताबिक 2005 में हवा में पीएम-2.5 की सालाना औसत सीमा, जो 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर निर्धारित थी, उसकी सीमा घटाकर अब पांच माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दी गई है। वहीं पीएम-10 की सालाना औसत सीमा 15 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दी गई है, जो पहले एक घनमीटर पर 20 माइक्रोग्राम थी। वहीं ओजोन गैसों के लिए एक घनमीटर पर सालाना औसत सीमा 60 माइक्रोग्राम, नाइट्रोजन आक्साइड के लिए 10, सल्फर डाईआक्साइड के लिए 40 और कार्बन मोनोक्साइड के लिए चार माइक्रोग्राम निर्धारित की गई है।

वायु प्रदूषण के मानकों को सख्त करने का उद्देश्य इसके प्रतिकूल प्रभावों से मानवजाति की रक्षा करने के लिए राष्ट्रों से आह्वान करना है। गौरतलब है कि ये दिशानिर्देश ऐसे समय में सख्त किए गए हैं, जब वायु प्रदूषण पूरी दुनिया में एक बड़े सार्वजनिक जोखिम का स्वरूप अख्तियार कर चुका है। स्टेट आफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट-2020 के मुताबिक वायु प्रदूषण दुनिया में मौत का चौथा सबसे बड़ा कारण है, जिससे हर मिनट करीब 13 लोगों की असमय मौत होती है। अगर दुनिया विश्व स्वास्थ्य संगठन के इन दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन करे तो प्रदूषित वायु की गुणवत्ता सुधार कर दुनियाभर में हर साल असमय होने वाली करीब 70 लाख मौतों को टाला जा सकता है। नए दिशानिर्देश विश्व परिवार से वायु प्रदूषण का स्तर घटाने और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने की अपील करती दिखती है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन दिशानिर्देशों के प्रति दुनिया पूरी तरह संजीदगी दिखा पाएगी?

सख्ती से कितने सुधरेंगे हालात : वर्ष 2019 में वैश्विक आबादी का 99 फीसद हिस्सा उन इलाकों में निवास कर रहा था, जहां वायु गुणवत्ता का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2005 में निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं था। इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि दुनिया के अधिकांश देश डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित इन मानकों को अपने यहां लागू करने में विफल साबित हुए हैं। ग्रीनपीस इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के 100 बड़े शहरों में 92 शहर ऐसे हैं, जहां हवा में प्रदूषकों की मात्र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक से कहीं अधिक है। इसमें पांच शहर भारत के भी शामिल हैं। वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में दिल्ली में पीएम-2.5 की सालाना औसत सीमा विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए मानक से 17 गुना, अहमदाबाद में 10 गुना, कोलकाता में 9.4 गुना, मुंबई में आठ गुना, हैदराबाद में सात गुना अधिक रही। स्पष्ट है अगर समय रहते डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों पर अमल न किया गया तो सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए वायु प्रदूषण दैत्य साबित होगा।

यहां जहरीला आकाश है : वायु अब अपने साथ आक्सीजन के साथ-साथ बीमारियां और मौत भी ढो रही है। स्वास्थ्य पत्रिका द लैंसेट में प्रकाशित प्लेनेटरी हेल्थ रिपोर्ट-2020 के मुताबिक 2019 में भारत में सिर्फ वायु प्रदूषण से 17 लाख मौतें हुईं, जो उस वर्ष देश में होने वाली कुल मौतों की 18 फीसद थी। पिछले दो दशक में भारत में वायु प्रदूषण 42 फीसद तक बढ़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 84 फीसद भारतीय उन इलाकों में रह रहे हैं, जहां वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से ऊपर है।

जीवन प्रत्याशा पर वायु प्रदूषण का प्रहार : वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक रिपोर्ट-2020 के मुताबिक प्रदूषित इलाकों में रहने वाले भारतीय पहले की तुलना में औसतन पांच साल कम जी रहे हैं। कई राज्यों में यह दर राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार केवल वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में जीवन प्रत्याशा नौ वर्ष, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आठ वर्ष, बिहार और बंगाल में सात वर्ष तक कम हो रही है। कुछ समय पहले काíडयोवैस्कुलर रिसर्च जर्नल में प्रकाशित एक शोध में भी शोधकर्ताओं ने माना कि वायु प्रदूषण के चलते पूरे विश्व में जीवन प्रत्याशा औसतन तीन वर्ष तक कम हो रही है, जो अन्य बीमारियों के कारण जीवन प्रत्याशा पर पड़ने वाले असर की तुलना में अधिक है। मसलन तंबाकू के सेवन से जीवन प्रत्याशा में तकरीबन 2.2 वर्ष, एड्स से 0.7 वर्ष, मलेरिया से 0.6 वर्ष और युद्ध के कारण 0.3 वर्ष की कमी आती है। हैरानी की बात यह है कि देश में बीमारी, युद्ध और किसी भी हिंसा में मरने वालों से कहीं अधिक संख्या वायु प्रदूषण से मरने वालों की है, पर दुख की बात है कि इस अपराध के लिए किसी खास व्यक्ति या संस्था को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

आर्थिकी को भी नुकसान : आंकड़ों के अनुसार वायु प्रदूषण से वैश्विक अर्थव्यवस्था को सलाना 2.9 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। 1990 की तुलना में 2019 में बाह्य वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु दर में 115 फीसद की वृद्धि से श्रमबल भी प्रभावित हुआ है। देश में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारी के इलाज में एक बड़ी धनराशि खर्च हो जाती है। 2019 में वायु प्रदूषण के कारण मानव संसाधन के रूप में नागरिकों के असमय निधन होने तथा बीमारियों पर खर्च के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तकरीबन 2.60 लाख करोड़ रुपये की कमी आई थी। अनुमान है कि 2024 तक वायु प्रदूषण के कारण उत्तर प्रदेश में जीडीपी का 2.15 फीसद, बिहार में 1.95 फीसद, मध्य प्रदेश में 1.70 फीसद, राजस्थान में 1.70 फीसद और छत्तीसगढ़ में 1.55 फीसद नुकसान हो सकता है। जाहिर है, वायु प्रदूषण देश की आíथकी को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है, लेकिन यह हमारी जीवनशैली में इस प्रकार शामिल हो गया है कि इसे हम एक समस्या के तौर पर नहीं देखते। वायु प्रदूषण की वजह से किसी प्रदेश का पर्यटन भी प्रभावित होता है। विश्व बैंक के एक आकलन के मुताबिक 1990 से 2013 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रदूषण के कारण करीब 39 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, लेकिन वर्तमान हालात इससे चार गुना अधिक नुकसान के बन रहे हैं।

दिखानी होगी संजीदगी : वायु प्रदूषण का यह जानलेवा स्वरूप अंधाधुंध विकास और मानव के पर्यावरण-प्रतिकूल व्यवहार एवं कृत्य का ही गौण उत्पाद (बाइ-प्रोडक्ट) है। वास्तव में आधुनिक जीवन का पर्याय बन चुके उद्योगीकरण और नगरीकरण की तीव्र रफ्तार तथा पर्यावरणीय चेतना की कमी के कारण पर्यावरण बेदम हो रहा है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने वायु प्रदूषण के खिलाफ जंग के लिए राष्ट्रीय वायु स्वच्छ कार्यक्रम की शुरुआत की थी, जिसका लक्ष्य 2017 की तुलना में 2024 तक वायु प्रदूषण में 20 से 30 फीसद की कमी लाना है। हालांकि यह तभी मुमकिन है, जब देश में सततपोषणीय विकास पर जोर दिया जाए तथा पर्यावरण संरक्षण के निमित्त हम अपने स्तर पर सकारात्मक पहल करें। तभी स्थिति बदलेगी और पृथ्वी पर जीवन की परिस्थितियां अनुकूल होंगी।

आमतौर पर वायु प्रदूषण की चर्चा होने पर हम केवल शहरों की ओर ही देखते हैं, क्योंकि वहां उद्योगों और गाड़ियों की भरमार दिखती है, लेकिन प्रदूषण के जिस स्वरूप पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है, वह है-घर के अंदर फैला प्रदूषण। हालांकि इस मामले में शहरों और गांवों की स्थिति लगभग समान है, लेकिन जलावन के परंपरागत स्नेतों पर निर्भरता के कारण गांवों में घरेलू प्रदूषण की स्थिति भयावह है।

जलावन के परंपरागत स्नेतों जैसे लकड़ी, गोबर, कोयला, केरोसिन एवं फसल अवशिष्टों के ज्वलन से मिथेन, कार्बन मोनोक्साइड, पोलिएरोमेटिक हाइड्रोकार्बन आदि का उत्सर्जन होता है, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक होते हैं। 2019 में केवल घरेलू प्रदूषण से छह लाख लोगों की मौतें हुई थीं, जिनमें से 27 फीसद निमोनिया, 18 फीसद स्ट्रोक, 27 फीसद दिल की बीमारी तथा आठ फीसद फेफड़े की बीमारी से संबंधित थे। इनमें बच्चों और महिलाओं की संख्या सर्वाधिक है, क्योंकि उन्हें अधिकांश समय घर पर ही रहना होता है। ग्रामीण महिलाएं इस जानकारी से अनजान रहती हैं कि चूल्हा से निकलने वाला धुआं शारीरिक के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एक घंटे में परंपरागत चूल्हे से निकलने वाले धुएं से उतनी ही हानि होती है, जितनी एक घंटे में 400 सिगरेट जलने से। तात्पर्य यह है कि परंपरागत चूल्हे में खाना बनाना मौत के साथ-साथ अनेक बीमारियों को आमंत्रण देने जैसा है। धुएं की चपेट में आने से महिलाओं में सांस संबंधी तथा सिर दर्द की परेशानियां आम हैं। इस तरह घरेलू प्रदूषण से फेफड़ों की कार्यक्षमता घटती जाती है। इसका प्रभाव महिलाओं पर सबसे अधिक होता है, क्योंकि उन्हें कई-कई घंटे तक खुले चूल्हे के सामने रहना पड़ता है।

विश्व की एक तिहाई से अधिक आबादी जलावन के लिए आज भी जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग करती है। इसमें अधिकांश राष्ट्र अविकसित और विकासशील श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। जीवाश्म ईंधनों के अधिक प्रयोग से निकलने वाली जहरीली गैसें पृथ्वी के औसत तापमान को बढ़ाकर ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा कारक बनती हैं। हालांकि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत घर-घर घरेलू गैस कनेक्शन के वितरण किए जाने से इस स्थिति में बदलाव आ रहा है। ग्रामीण आबादी भी अब स्वच्छ ईंधन के प्रति जागरूक हो रही है, जो अच्छी बात है।

[शोधार्थी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय]


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